श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 90 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: नवतितमोऽध्यायः(90) (उत्तरार्ध)
भगवान श्रीकृष्ण के लीला-विहार का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! द्वारका नगरी की छटा अलौकिक थी। उसकी सड़कें, मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथों की भीड़ से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्दान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। उन पर बैठकर भौंरें गुनगुना रहे हैं और तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकार की सम्पत्तियों से भरपूर थी। जगत् के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँ की स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषा से विभूषित थीं और उनके अंग-अंग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलों में गेंद आदि के खेल खेलतीं और उनका कोई अंग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसी में वे निवास करते थे। भगवान श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राण-वल्लभ थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे । सभी पत्नियों के महलों में सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के पराग से मंहकता रहता था। उसमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण उन जलाशयों में तथा कभी-कभी नदियों के जल में भी प्रवेश कर अपनी पत्नियों के साथ जल-विहार करते थे। भगवान के साथ विहार करने वाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लेतीं, आलिंगन करतीं, तब भगवान के श्रीअंगों में उनके वक्षःस्थल की केसर लग जाती थी । उस समय गन्धर्व उनके यश का गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्द से मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते । भगवान की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियों से उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान अपनी पत्नियों के साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियों के साथ विहार कर रहे हों । उस समय भगवान की पत्नियों के वक्षःस्थल और जंघा आदि अंग वस्त्रों के भीग जाने के कारण उसमें से झलकने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जुड़ों में से गुँथे हुए फुल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेने के लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहाने अपने प्रियतम का आलिंगन कर लेतीं। उनके स्पर्श से पत्नियों के ह्रदय में प्रेम-भाव की अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरों पर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती । उस समय भगवान श्रीकृष्ण की वनमाला उन रानियों के वक्षः स्थल पर लगी हुई केसर के रांग के रँग जाती। विहार में अत्यन्त मग्न हो जाने के कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भाव से लहराने लगतीं। वे अपनी रानियों को बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान श्रीकृष्ण उनके साथ इसी प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीडा कर रहा हो । भगवान श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करने के बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियों को दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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