श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 38-45
द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
इसके बाद उन्होंने दोनों को आसन पर बैठाया, बड़े प्रेम से उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदि से उनकी पूजा करने लगे । भगवान नर-नारायण सुखपूर्वक आसन पर विराजमान थे और मार्कण्डेयजी पर कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रहे थे। पूजा के अनन्तर मार्कण्डेयजी मुनि ने उस सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायण के चरणों में प्रणाम किया और यह स्तुति की । मार्कण्डेय मुनि ने कहा—भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमा का कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रम्हा, शंकर तथा मेरे शरीर में भी प्राणशक्ति का संचार होता है और फिर उसी के कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियों में भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जानने की शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होने पर भी आप अपना भजन करने वाले भक्तों के प्रेम-बन्धन में बँधे हुए हैं । प्रभो! आपने केवल विश्व की रक्षा के लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकी के कल्याण, उसकी दुःख-निवृत्ति और विश्व के प्राणियों को मृत्यु पर विजय प्राप्त कराने के लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ी के समान अपने से ही इस विश्व को प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपने में ही लीन भी कर लेते हैं । आप चराचर का पालन और नियमन करने वाले हैं। मैं आपके चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेद के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्ति के लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं । प्रभो! जीव के चारों भय-ही-भय का बोलबाला है। औरों की तो बात ही क्या, आपके कालरूप से स्वयं ब्रम्हा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्थ की है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीर वाले प्राणियों के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्था में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्ति का उपाय हमारी समझ में नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरुप हैं । भगवन्! आप समस्त जीवों के परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरुप हैं। इसलिये आत्मस्वरुप को ढक देने वाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थों को त्याग कर मैं आपके चरणकमलों की ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है । जीवों के परम सुह्रद् प्रभो! यद्यपि सत्व, रज और तम—ये तीनों गुण आपकी मूर्ति हैं—इन्हीं के द्वारा आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्वगुणमयी मूर्ति ही जीवों को शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियों से जीवों को शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दुःख, मोह और भय की वृद्धि ही होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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