श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 18-25
द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः (7)
दैत्यराज बलि ने अपने सिर पर स्वयं वामन भगवान् का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थिति में उन्हें जो देवताओं के राजा इन्द्र की पदवी मिली, इसमें कोई बलि का पुरुषार्थ नहीं था। अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान् का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणों में सिर रखकर उन्होंने अपने-आप को भी समर्पित कर दिया । नारद! तुम्हारे अत्यन्त प्रेम भाव से परम प्रसन्न होकर हंस के रूप में भगवान् ने तुम्हें योग, ज्ञान और आत्मतत्व को प्रकाशित करने वाले भागवत धर्म का उपदेश किया। वह केवल भगवान् के शरणागत भक्तों को ही सुगमता से प्राप्त होता है । वे ही भगवान् स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरों में मनु के रूप में अवतार लेकर मनुवंश की रक्षा करते हुए दासों दिशाओं में अपने सुदर्शन चक्र के समान तेज से बरोक-टोक—निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकों के ऊपर सत्यलोक तक उनके चरित्रों की कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूप में वे समय-समय पर पृथ्वी के भारभूत दुष्ट राजाओं का दमन भी करते रहते हैं । स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नाम से ही बड़े-बड़े रोगियों के रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओं को अमर कर दिया और दैत्यों के द्वारा हरण किये हुए उनके यज्ञभाग उन्हें फिर से दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसार में आयुर्वेद का प्रवर्तन किया । जब संसार में ब्राम्हणद्रोही आर्य मर्यादा का उल्लंघन करने वाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिये ही देववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के काँटें बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धार वाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं । मायापति भगवान् हम पर अनुग्रह करने के लिये अपनी कलाओं—भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण एक साथ श्रीराम के रूप से इक्ष्वाकु के वंश में अवतीर्ण होते हैं। इस अवतार में अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अपनी पत्नी और भाई के साथ वे वन में निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है । त्रिपुर विमान की जलाने के लिये उद्दत शंकर के समान, जिस समय भगवान् राम शत्रु की नगरी लंका को भस्म करने के लिये समद्र तट पर पहुँचते हैं, उस समय सीता के वियोग के कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्नि से उनकी आँखें इतनी लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टि से ही मगरमच्छ, साँप और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भय से थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है । जब रावण की कठोर छाती से टकराकर इन्द्र के वाहन ऐरावत के दाँत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंड से फूलकर हँसने लगा था। वही रावण जब श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी सीताजी को चुराकर ले जाता है और लड़ाई के मैदान में उनसे लड़ने के लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीराम के धनुष की टंकार से ही उसका वह घमंड प्राणों के साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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