श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 23-36

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प्रथम स्कन्धः पञ्चम अध्यायः(5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पञ्चम अध्यायः श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद
भगवान के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्व चरित्र


मुने! पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राम्हणों की एक दासी का लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था । मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकार की चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर अत्यन्त अनुग्रह किया । उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ प्रसाद मैं एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रूचि हो गयी । प्यारे व्यासजी! उस सत्संग में उन लीला गान परायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्रीकृष्ण की मनोहर कथाएँ सुना करता। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रूचि हो गयी । महामुने! जब भगवान में मेरी रूचि हो गयी, तब उन मनोहर कीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत् को अपने परब्रम्ह स्वरुप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा । इस प्रकार शरद् और वर्षा—इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का संकीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण के नाश करने वाली भक्ति का मेरे ह्रदय में प्रादुर्भाव हो गया । मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे ह्रदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था । उन दीनवत्स महत्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्तम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है । उस उपदेश से ही जगत् के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की प्राप्ति हो जाती है । सत्यसंकल्प व्यासजी! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी । प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्सा विधि के अनुसार प्रयोग करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता ? इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है । इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं, उन्हीं से पराभक्ति युक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है । उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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