"महाभारत मौसल पर्व अध्याय 4 श्लोक 13-28": अवतरणों में अंतर

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१३:१७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

चतुर्थ (4) अध्याय: मौसल पर्व

महाभारत: मौसल पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद

बलराम जी योगयुक्त हो समाधि लगाये बैठे थे । श्रीकृष्ण ने उनके मुख से एक श्वेत वर्ण के विशालकाय सर्प को निकलते देखा । उनसे देखा जाता हुआ वह महानुभाव नाग जिस ओर महासागर था उसी मार्ग पर चल दिया। वह अपने पूर्व शरीर को त्याग कर इस रूप में प्रकट हुआ था । उस के सहस्त्रों मस्तक थे । उसका विशाल शरीर पर्वत के विस्तार-सा जान पड़ता था । उस के मुख की कान्ति लाल रंग की थी । समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर उस नाग का - साक्षात् भगवान् अनन्त का भली भाँति स्वागत किया । दिव्य नागों और पवित्र सरिताओं ने भी उनका सत्कार किया। राजन् ! कर्कोटक, वासुकि, तक्षक,पृथुश्रवा, अरूण, कुञ्जर, मिश्री,शंख,कुमुद, पुण्डरीक, महामना धृतराष्ट्र, ह्राद, क्राथ, शितिकण्ठ, उग्रतेजा,चक्रमन्द, अतिषण्ड, नागप्रवर दुर्मुख, अम्बरीष, और स्वयं राजा वरूण ने भी उनका स्वागत किया। उपर्युक्त सब लोगों ने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, स्वागतपूर्वक अभिनन्दन किया और अर्घ्‍य-पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनकी पूजा सम्‍पन्न की । भाई बलराम के परम धाम पधारने के पश्चात् सम्पूर्ण गतियों को जानने वाले दिव्यदर्शी भगवान् श्रीकृष्ण कुछ सोचते-विचारते हुए उस सूने वन में विचरने लगे । फिर वे श्रेष्ठ तेज वाले भगवान् पृथ्वी पर बैठ गये । सब से पहले उन्‍होंनेवहाँ उस समय उन सारी बातों को स्मरण किया, जिन्हें पूर्वकाल में गान्धारी देवी ने कहा था। जूठी खीर को शरीर में लगाने के समय दुर्वासाने जो बात कही थी उसका भी उन्हें स्मरण हो आया । फिर वे महानुभाव श्रीकृष्ण अन्धक, वृष्णि और कुरूकुल के विनाश की बात सोचने लगे। तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने तीनों लोकों की रक्षा तथा दुर्वासा के वचन का पालन करने के लिये अपने परमधाम पधारने का उपयुक्त समय प्राप्त हुआ समझा तथा इसी उद्देश्य से अपनी सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध किया। भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अर्थों के तत्त्ववेत्ता और अविनाशी देवता हैं । तो भी उस समय उन्होंने देहमोक्ष या ऐहलौकिक लीला का संवरण करने के लिये किसी निमित्त के प्राप्त होने की इच्‍छा की । फिर वे मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके महायोग (समाधि)-का आश्रय ले पृथ्वी पर लेट गये। उसी समय जरानामक एक भयंकर व्याध मृगों को मार ले जाने की इच्छा से उस स्थान आया । उस समय श्रीकृष्ण योगयुक्त होकर सो रहे थे । मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी मृग ही समझा और बड़ी उतावली के साथ बाण मार कर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया । फिर उस मृग को पकड़ने के लिये जब वह निकट आया तब योग में स्थित, चार भुजा वाले, पीताम्बरधारी पुरूष भगवान् श्रीकृष्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी। अब तो जरा अपने को अपराधी मानकर मन-ही-मन बहुत डर गया । उसने भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों पैर पकड़ लिये । तब महात्मा श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्ति से पृथ्वी एवं आकाश को व्याप्त करते हुए वे ऊर्ध्‍वलोक में (अपने परम धाम को) चले गये। अन्तरिक्ष में पहुँचने पर इन्द्र, अश्विनी कुमार, रूद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव,मुनि, सिद्ध, अप्सराओं सहित मुख्य-मुख्य गन्धर्वों ने आगे बढ़कर भगवान् का स्वागत किया। राजन् ! तत्पश्चात् जगत् की उत्पत्ति के कारण रूप, उग्रतेजस्वी, अविनाशी, योगचार्य महात्मा भगवान् नारायण अपनी प्रभा से पृथ्‍वी और आकाश को प्रकाशमान करते हुए अपने अप्रमेय धाम को प्राप्त हो गये। नरेश्वर ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ गन्धर्वों, सुन्दरी अप्सराओं, सिद्धों और साध्यों द्वारा विनीत भाव से पूजित हो देवताओं, ऋषियों तथा चारणों से भी मिले। राजन् ! देवताओं ने भगवान् का अभिनन्दन किया । श्रेष्ठ महर्षियों ने ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा उनकी पूजा की । गन्धर्व स्तुति करते हुए खड़े रहे तथा इन्द्र ने भी प्रेम वश उनका अभिनन्दन किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसल पर्व में श्रीकृष्ण का परमधामगमन विषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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