"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 33-38": अवतरणों में अंतर

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१४:१७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 33-38 का हिन्दी अनुवाद

जिसका किसी भी प्राणी के साथ विरोध नहीं है, जो ज्ञानस्‍वरूप आत्‍मा में रमता र‍हता है, ऐसे ज्ञानीको इस लोक में पुन: जन्‍म लेने का भय ही नहीं रहता, फिर उसे परलोक का भय कैसे हो सकता है? दम अर्थात् संयम में एक ही देाष है, दूसरा नहीं। वह यह कि क्षमाशील होने के कारण उसे लोग असमर्थ समझने लगते है। महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! उसका यह एक दोष ही महान् गुण हो सकता है। क्षमा धारण करने से उसको बहुत से पुण्‍यलोक सुलभ होते हैं। साथ ही क्षमा से सहिष्‍णुता भी आ जाती है। भारत! संयमी पुरूष को वन में जाने की क्‍या आवश्‍यकता है? और जो असंयमी है, उसको वन में रहने से भी क्‍या लाभ है? संयमी पुरूष जहां रहे, वहीं उसके लिये वन और आश्रम है। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्‍मजी की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्‍न हुए, मानो अमृत पीकर तृप्‍त हो गये हों। कुरूक्षेष्‍ठ! तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ भीष्‍मजी से पुन: तपस्‍या विषय में प्रश्‍न किया। तब भीष्‍म जी ने उन्‍हें उसके विषय में सब कुछ बताना आरम्‍भ किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत आपद्धर्मपर्व में दम का वर्णनविषयक एक सौ साठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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