"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 23 श्लोक 20-39": अवतरणों में अंतर

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१४:४३, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

तेईसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तेईसवाँ अध्याय: श्लोक 30- 47 का हिन्दी अनुवाद


राजा ने उन धर्मज्ञ मुनि से मिलकर पूछा-’भगवन्! आपका शुभागमन किस उद्देश्य से हुआ है? यह बताइये और उसे पूरा हुआ ही समझिये,। उनके इस तरह कहने पर विप्रर्षि लिखित ने सुद्युम्न से यों कहा- ’राजन् ! पहले यह प्रतिज्ञा कर लो कि ’ हम करेंगे, उसके बाद मेरा उद्देश्य सुनो और सुनकर उसे तत्काल पूरा करो। नरश्रेष्ठ! मैंने बड़े भाई के दिये बिना ही उनके बगीचे से फल लेकर खा लिये हैं; महाराज! इसके लिये मुझे शीध्र दण्ड दीजिये’।

सुद्युम्न ने कहा- ब्राह्मण शिरोमणे! यदि आप दण्ड देने में राजा को प्रणाम मानते हैं तो वह क्षमा करके आपको लौट जाने की आज्ञा दे दे, इसका भी उसे अधिकार है। आप पवित्र कर्म करने वाले और महान् व्रतधारी हैं। मैंने अपराध को क्षमा करके आपको जाने की आज्ञा दे दी । इसके सिवा, यदि दूसरी कामनाएँ आपके मन में हों तो उन्हें बताइये, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

व्यास जी ने कहा- महामना राजा सुद्युम्न के बारंबार आग्रह करने पर भी ब्रह्मर्षि लिखित ने उस दण्ड के सिवा दूसरा कोई वर नहीं माँगा। तब उन भूपाल ने महामना लिखित के दोनों हाथ कटवा दिये। दण्ड पाकर लिखित वहाँ से चले गये। अपने भाई शंख के पास जाकर लिखित ने आर्त होकर कहा- भैया! मैंने दण्ड पा लिया। मुझ दुर्बुद्धि के उस अपराध को आप क्षमा कर दें’।

शंख बोले- धर्मज्ञ ! मैं तुम पर कुपित नहीं हूँ। तुम मेरा कोई अपराध नहीं करते हो। ब्रह्मन्! हम दोनों का कुल इस जगत् में अत्यन्त निर्मल एवं निष्कलंग्न रूप में विख्यात है। तुमने धर्म का उल्लघन किया था, अतः उसी का प्रायश्चित किया है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदी के तट पर जाकर विधि पूर्वक देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करो। भविष्य में फिर कभी अधर्म की ओर मन न ले जाना। शंख की वह बात सुनकर लिखित ने उस समय पवित्र नदी बाहुदा में स्नान किया और पितरों का तर्पण करने के लिये चेष्ठा आरम्भ की। इतने ही में उनके कमल-सदृश सुन्दरह दो हाथ प्रकट हो गये। तदनन्तर लिखित ने चकित होकर अपने भाई को वे दोनों हाथ दिखाये । तब शंख ने उनसे कहा -’भाई! इस विषय में तुम्हें शंका नहीं होनी चाहिये। मैंने तपस्या से तुम्हारे हाथ उत्पन्न किये हैं। यहाँ देव का विधान ही सफल हुआ है’। तब लिखित ने पूछा-महातेजस्वी द्व्जिश्रेष्ठ! जब आपकी तपस्या का ऐसा बल है तो आपने पहले ही मुझे पवित्र क्यों नहीं कर दिया ?

शंख बोले - भाई! यह ठीक है, मैं ऐसा कर सकता था; परंतु मुझे तुम्हें दण्ड देने का अधिकार नहीं है। दण्ड देने का कार्य तो राजा का ही है। इस प्रकार दण्ड देकर राजा सुद्युम्न और उस दण्ड को स्वीकार करके तुम पितरों सहित पवित्र हो गये।

व्यास जी कहते हैं- पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर ! उस दण्ड- प्रदानरूपी कर्म से राजा सुद्युम्न उच्चतम पद को प्राप्त हुए। उन्होंने प्रचेताओं के पुत्र दक्ष की भाँति परम सिद्धि प्राप्त की थी। महाराज! प्रजाजनों का पूर्ण रूप से पालन करना ही क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। दूसरा काम उसके लिये कुमार्ग के तुत्य है; अतः तुम मन को शोक में न डुबाओ। धर्म के ज्ञाता सत्पुरुष ! तुम अपने भाई की हितकर बात सुनो। राजेन्द्र! दण्ड-धारण ही क्षत्रिय- धर्म के अन्तर्गत है, मूँड़ मुड़ाकर संन्यासी बनाना नहीं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास वाक्य विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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