"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 309 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर

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==नवाधिकत्रिशततम (309) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद</div>


जनक वंशी वसुमान् को एक मुनिका धर्म विषयक उपदेश  
जनक वंशी वसुमान् को एक मुनिका धर्म विषयक उपदेश  

०६:४२, ३१ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

नवाधिकत्रिशततम (309) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

जनक वंशी वसुमान् को एक मुनिका धर्म विषयक उपदेश

भीष्‍म जी कहते हैं — राजन् ! एक समय की बात है, जनकवंश का कोई राजकुमार शिकार खेलने के लिये एक निर्जन वन में घूम रहा था । उसने वन में बैठे हुए एक मुनिको देखा; जो ब्राह्माण में श्रेष्‍ठ एवं महर्षि भृगु के बंशधर थे। पास ही बैठे हुए मुनि को मस्‍तक झुकाकर प्रणाम करके वह राजकुमार उनके समीप में ही बैठ गया। उसका नाम वसुमान् था। उसने महर्षि की आज्ञा लेकर उनसे इस प्रकार पूछा— ‘भगवान् ! इस श्रणभंगुर शरीर में काम के अधीन होकर रहनेवाले पुरूष का इस लोक और परलोक में किस उपाय से कल्‍याण हो सकता है? सत्‍कारपूर्वक प्रश्‍न करने पर उन महातपस्‍वी महात्‍मा मुनिने राजकुमार वसुमान् से यह कल्‍याणकारी वचन कहा। ॠषि बोले— राजकुमार ! यदि तुम इस लोक और परलोक में अपने मन के अनुकूल वस्‍तुएँ पाना चाहते हो तो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर समस्‍त प्राणियों के प्रतिकूल आचरणों से दूर हट जाओ। धर्म ही सत्‍पुरूषों का कल्‍याण करने वाला और धर्म ही उनका आश्रय है। तात ! चराचर प्राणियों सहित तीनों लोक धर्म से उत्‍पन्‍न हुए हैं। भोगों का रस लेने की इच्‍छा रखने वाले दुर्बुद्धि मानव ! तुम्‍हारी कामपिपासा शान्‍त क्‍यों नहीं होती ? अभी तुम्‍हें वृक्ष की ऊँची डाली में लगा हुआ केवल मधु ही दिखायी देता है । वहाँ से गिरने पर प्राणान्‍त हो सकता है, इसकी और तुम्‍हारी दृष्टि नहीं है (अर्थात् अभी तुम भोगों की मिठास पर ही लुभाये हुए हो। उससे होने वाले पतन की और तुम्‍हारा ध्‍यान नहीं जा रहा है)। जैसे ज्ञान का फल चाहने वाले के लिये ज्ञान से परिचित होना आवश्‍यक है, उसी प्रकार धर्म का फल चाहने वाले मनुष्‍य को भी धर्म का परिचय प्राप्‍त करना चाहिये। दुष्‍ट पुरूष यदि धर्म की इच्‍छा करे तो भी उसके द्वारा विशुद्ध कर्म का सम्‍पादन होना कठिन हे और साधु पुरूष यदि धर्म के अनुष्‍ठान की इच्‍छा करे तो उसके लिये कठिन-से कठिन कर्म भी करना सहज है। वन में रहकर भी जो ग्रामीण सुखों का उपभोग करने में लगा है, उसको ग्रामीण ही समझना चाहिये तथा गाँवों में रहकर भी जो वनवासी मुनियों के-से बर्ताव में ही सुख मानता है, उसकी गिनती वनवासियों में ही करनी चाहिये। पहले निवृत्ति और प्रवृत्ति-मार्ग में जो गुण-अवगुण हैं, उनका तुम अच्‍छी तरह निश्‍चय कर लो; फिर एकाग्रचित्‍त हो मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाले धर्म में श्रद्धा करो (अर्थात् श्रद्धापूर्वक धर्म के पालन में लग जाओ)। प्रतिदिन व्रत और शौचाचार का पालन करते हुए उत्‍तम देश और काल में साधु पुरूषों को प्रार्थना और सत्‍कारपूर्वक अधिक-से-अधिक दान करना चाहिये और उनमें दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। शुभकर्मो द्वारा प्राप्‍त हुआ धन सत्‍पात्र को अर्पण करना चाहिये। क्रोध को त्‍यागकर दान देना चाहिये और देने के बाद न तो उसके लिये पश्‍चाताप करना चाहिये और न उसे दूसरों को बताना ही चाहिये। दयालू, पवित्र, जितेन्द्रिय, सत्‍यवादी, सरलतापूर्ण बर्ताव करने वाला तथा योनि से अर्थात् जन्‍म से और कर्म से शुद्ध वेदवेत्‍ता ब्राह्माण ही दान पाने का उत्‍तम पात्र है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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