"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 191": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

गीता की शिक्षा इस पहले भाग में योग और ज्ञान , जीव के वे दो पंख हैं जिनके सहारे वह ऊपर उठता है। योग से अभिप्रेत है निष्काम होकर, समस्त पदार्थों और मनुष्यों के प्रति आत्म -समत्व रखकर, पुरूषोत्तम के लिये यज्ञरूप से किये गये दिव्य कर्मो के द्वारा भगवान् से एकता , और ज्ञान से अभिप्रेत है वह ज्ञान जिस पर यह निष्कामता, यह समता यह यज्ञ - शक्ति प्रतिष्ठित है। दोनों पंख निश्चय ही उड़ान में एक - दूसरे की सहायता करते हैं; दोनों एक साथ क्रिया करते रहते हैं, फिर भी इस क्रिया में बारी - बारी से एक - दूसरे की सहायता करने का सूक्ष्म क्रम रहता है , जैसे मनुष्य की दोनों आंखें बारी - बारी से देखती हैं इसीलिये एक साथ देख पाती हैं, इसी प्रकार योग और ज्ञान अपने सारतत्व के परस्पर आदान - प्रदान के द्वारा एक - दूसरे को सवंर्द्धित करते रहते हैं ज्यों - ज्यों कर्म अधिकाधिक निष्काम, समबुद्धि युक्त और यज्ञभावापन्न होता जाता है , त्यों - त्यों जीव अपने कर्म की निष्काम और यज्ञात्मक समता में अधिकाधिक दृढ़ होता जाता है। इसलिये गीता ने कहा कि किसी द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है। ‘‘ चाहे तू पाप `कर्मियों में सबसे बड़ा पाप - कर्मी भी क्यों न हो, ज्ञान की नौका में बैठकर पाप के कुटिल समुद्र को पार कर जायेगा।
... इस जगत् में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं।”[१] ज्ञान से कामना और उसकी सबसे पहली संतान पाप का ध्वंस होता है । मुक्त पुरूष कर्मो को यज्ञ पुरूष से कर सकता है, क्योंकि मन , हृदय और आत्मा के आत्मज्ञान मे दृढ़प्रतिष्ठित होने के कारण वह आसक्ति से मुक्त होता है, उसके सारे कर्म होने के साथ ही सर्वथा लय को प्राप्त हो जाते हैं, कहा जा सकता है कि ब्रह्य की सत्ता में विलीन हो जाते हैं, बाह्मतः जो कर्ता दीख पड़ता है उसकी अंतरात्मा पर उन कर्मो का कोई प्रतिगामी परिणाम नहीं होता। स्वयं भगवान् ही उस कर्म को अपनी प्रकृति के द्वारा करते हैं, वे मानव - उपकरण के अपने नहीं रह जाते । स्वयं कर्म ब्रह्म सत्ता के स्वभाव और स्वरूप की एक शक्ति बन जाता है।गीता के इस वचन का यही अभिप्राय है - सारा कर्म ज्ञान में अपनी पूर्णता, परिणाम और परिसमाप्ति को प्राप्त होता है। ‘‘प्रज्वलित अग्नि जिस तरह ईधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञान की अग्नि सब कर्मो को भस्म कर देती है।”[२][३] इसका यह अभिप्राय हर्गिज नहीं कि जब पूर्ण ज्ञान होता है तब तब कर्म बन्द हो जाते हैं। इसका वास्तविक अभिप्राय गीता के इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि - अर्थात् ज्ञान के द्वारा अपने सब संयश को काट डाला और योग के द्वारा कर्मो का संन्यास किया वह आत्मवान् पुरूष अपने कर्मो से नहीं बंधता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 14.36
  2. 24.33
  3. 34.37

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