"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 52" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-52 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 52 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति २: पंक्ति २:
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">6.मनुष्य और जीवन-संग्राम</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">6.मनुष्य और जीवन-संग्राम</div>
  
गीता विश्व - ऊर्जा के इस पहलू को तथा युद्ध के भौतिक तथ्य - को जो इस पहलू का मूर्त रूप है - स्वीकार करती है और एक क्षत्रिय को संबोधित करती है अर्थात् उस मनुष्य को जो कर्मशील , उद्योगी और योद्धा है - यह युद्ध अंदर शांति और बाहर अहिंसा रखने की अंतरात्मा की उच्च अभीप्सा से एक दम विपरीत है और जिस योद्धा को गीता उपदेश देती है उसके कार्य और संघर्ष की आवश्यक हलचल अंतरात्मा के शांत प्रभुत्व और आत्म - अधिकृति जैसे आदशों के सर्वथा विपरीत मालूम होती है । ऐसी परस्पर- विरोधी अवस्थाओं मे से गीता एक रास्ता निकालने और एक ऐसे स्थल पर पंहुचाने का प्रयास करती है जहां दोनों बाते बराबर होकर मिल जायें और वह संतुलित अवस्था हो जाये जो सामंजस्य और परा - स्थिति का मूल और पहला आधार हो। मनुष्य जीवन - संग्राम का सामना अपनी प्रकृति के सर्वोपरि मूलभूत गुण के अनुरूप ही किया करता है; सांख्य सिद्धांत के अनुसार - जो इस प्रसंग में गीता को भी मान्य है- विश्व - ऊर्जा के , और इसलिये मानव - स्वभाव के भी, तीन मूलभूत तत्व या गुण है। सत्व संतुलित अवस्था, ज्ञान और संतोष का गुण है; रज प्राणावेग , कर्म एव द्वंद्वमय भावावेग का और तम अज्ञान तथा जडता का। मनुष्य में जब तमोगुण की प्रधानता होती है तब वह अपने चारों ओर चक्कर काटने वाली और अपने ऊपर आ धमकने - वाली जगत्- शक्तियों के वेगों और धक्कों का उतना सामना नहीं करता, क्योंकि उनके सामने वह हिम्मत हार जाता, उनके प्रभाव में आ जात, शोकाकुल हो जाता और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है; अथवा अधिक - से - अधिक अपने अन्य गुणों से मदद पाकर किसी तरह बचे रहना चाहता है, जब तक टिक सके तब तक टिका रहना चाहता है, किसी ऐसे आचार - विचार से बंधे जीवन क्रम के गढ में छिपकर अपनी जान बचाना चाहता है जिसमें पहुंचकर वह अपने आपको किसी अंश में इस संग्राम से बचा हुआ समझे और यह समझे कि उसकी उच्चतर प्रकृति उससे जो कुछ मांग रही है उसे वह अस्वीकार कर सकेगा तथा इस संघर्ष को और आगे बढाने और एक वर्धमान प्रयास एवं प्रभुत्व के आदर्श को चरितार्थ करने की मेहनत से मुक्त हो सकेगा। रजोगुण की जब प्रधानता होती है तो मनुष्य अपने आपको युद्ध में झोंक देता है और शक्तियों का सघर्ष का उपयोग अपने ही अहंकार के लाभ के लिये अर्थात् विरोधी को मारने- काटने , जीतने , उस पर प्रभुत्व पाने और जीवन का भोग करने के लिये करता है ; अथवा अपने सत्वगुण से कुछ मदद पाकर इस संघर्ष को अपनी आंतरिक प्रभुता , अंत सुख शक्ति- संपति बढाने का साधन बना लेता है ।
+
गीता विश्व - ऊर्जा के इस पहलू को तथा युद्ध के भौतिक तथ्य - को जो इस पहलू का मूर्त रूप है - स्वीकार करती है और एक क्षत्रिय को संबोधित करती है अर्थात् उस मनुष्य को जो कर्मशील , उद्योगी और योद्धा है - यह युद्ध अंदर शांति और बाहर अहिंसा रखने की अंतरात्मा की उच्च अभीप्सा से एक दम विपरीत है और जिस योद्धा को गीता उपदेश देती है उसके कार्य और संघर्ष की आवश्यक हलचल अंतरात्मा के शांत प्रभुत्व और आत्म - अधिकृति जैसे आदशों के सर्वथा विपरीत मालूम होती है । ऐसी परस्पर- विरोधी अवस्थाओं मे से गीता एक रास्ता निकालने और एक ऐसे स्थल पर पंहुचाने का प्रयास करती है जहां दोनों बाते बराबर होकर मिल जायें और वह संतुलित अवस्था हो जाये जो सामंजस्य और परा - स्थिति का मूल और पहला आधार हो। मनुष्य जीवन - संग्राम का सामना अपनी प्रकृति के सर्वोपरि मूलभूत गुण के अनुरूप ही किया करता है; सांख्य सिद्धांत के अनुसार - जो इस प्रसंग में गीता को भी मान्य है- विश्व - ऊर्जा के , और इसलिये मानव - स्वभाव के भी, तीन मूलभूत तत्व या गुण है।<br />
 +
सत्व संतुलित अवस्था, ज्ञान और संतोष का गुण है; रज प्राणावेग , कर्म एव द्वंद्वमय भावावेग का और तम अज्ञान तथा जडता का। मनुष्य में जब तमोगुण की प्रधानता होती है तब वह अपने चारों ओर चक्कर काटने वाली और अपने ऊपर आ धमकने - वाली जगत्- शक्तियों के वेगों और धक्कों का उतना सामना नहीं करता, क्योंकि उनके सामने वह हिम्मत हार जाता, उनके प्रभाव में आ जात, शोकाकुल हो जाता और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है; अथवा अधिक - से - अधिक अपने अन्य गुणों से मदद पाकर किसी तरह बचे रहना चाहता है, जब तक टिक सके तब तक टिका रहना चाहता है, किसी ऐसे आचार - विचार से बंधे जीवन क्रम के गढ में छिपकर अपनी जान बचाना चाहता है जिसमें पहुंचकर वह अपने आपको किसी अंश में इस संग्राम से बचा हुआ समझे और यह समझे कि उसकी उच्चतर प्रकृति उससे जो कुछ मांग रही है उसे वह अस्वीकार कर सकेगा तथा इस संघर्ष को और आगे बढाने और एक वर्धमान प्रयास एवं प्रभुत्व के आदर्श को चरितार्थ करने की मेहनत से मुक्त हो सकेगा। रजोगुण की जब प्रधानता होती है तो मनुष्य अपने आपको युद्ध में झोंक देता है और शक्तियों का सघर्ष का उपयोग अपने ही अहंकार के लाभ के लिये अर्थात् विरोधी को मारने- काटने , जीतने , उस पर प्रभुत्व पाने और जीवन का भोग करने के लिये करता है ; अथवा अपने सत्वगुण से कुछ मदद पाकर इस संघर्ष को अपनी आंतरिक प्रभुता , अंत सुख शक्ति- संपति बढाने का साधन बना लेता है ।
  
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-51|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-53}}
+
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 51|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 53}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>

०९:१३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

गीता विश्व - ऊर्जा के इस पहलू को तथा युद्ध के भौतिक तथ्य - को जो इस पहलू का मूर्त रूप है - स्वीकार करती है और एक क्षत्रिय को संबोधित करती है अर्थात् उस मनुष्य को जो कर्मशील , उद्योगी और योद्धा है - यह युद्ध अंदर शांति और बाहर अहिंसा रखने की अंतरात्मा की उच्च अभीप्सा से एक दम विपरीत है और जिस योद्धा को गीता उपदेश देती है उसके कार्य और संघर्ष की आवश्यक हलचल अंतरात्मा के शांत प्रभुत्व और आत्म - अधिकृति जैसे आदशों के सर्वथा विपरीत मालूम होती है । ऐसी परस्पर- विरोधी अवस्थाओं मे से गीता एक रास्ता निकालने और एक ऐसे स्थल पर पंहुचाने का प्रयास करती है जहां दोनों बाते बराबर होकर मिल जायें और वह संतुलित अवस्था हो जाये जो सामंजस्य और परा - स्थिति का मूल और पहला आधार हो। मनुष्य जीवन - संग्राम का सामना अपनी प्रकृति के सर्वोपरि मूलभूत गुण के अनुरूप ही किया करता है; सांख्य सिद्धांत के अनुसार - जो इस प्रसंग में गीता को भी मान्य है- विश्व - ऊर्जा के , और इसलिये मानव - स्वभाव के भी, तीन मूलभूत तत्व या गुण है।
सत्व संतुलित अवस्था, ज्ञान और संतोष का गुण है; रज प्राणावेग , कर्म एव द्वंद्वमय भावावेग का और तम अज्ञान तथा जडता का। मनुष्य में जब तमोगुण की प्रधानता होती है तब वह अपने चारों ओर चक्कर काटने वाली और अपने ऊपर आ धमकने - वाली जगत्- शक्तियों के वेगों और धक्कों का उतना सामना नहीं करता, क्योंकि उनके सामने वह हिम्मत हार जाता, उनके प्रभाव में आ जात, शोकाकुल हो जाता और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है; अथवा अधिक - से - अधिक अपने अन्य गुणों से मदद पाकर किसी तरह बचे रहना चाहता है, जब तक टिक सके तब तक टिका रहना चाहता है, किसी ऐसे आचार - विचार से बंधे जीवन क्रम के गढ में छिपकर अपनी जान बचाना चाहता है जिसमें पहुंचकर वह अपने आपको किसी अंश में इस संग्राम से बचा हुआ समझे और यह समझे कि उसकी उच्चतर प्रकृति उससे जो कुछ मांग रही है उसे वह अस्वीकार कर सकेगा तथा इस संघर्ष को और आगे बढाने और एक वर्धमान प्रयास एवं प्रभुत्व के आदर्श को चरितार्थ करने की मेहनत से मुक्त हो सकेगा। रजोगुण की जब प्रधानता होती है तो मनुष्य अपने आपको युद्ध में झोंक देता है और शक्तियों का सघर्ष का उपयोग अपने ही अहंकार के लाभ के लिये अर्थात् विरोधी को मारने- काटने , जीतने , उस पर प्रभुत्व पाने और जीवन का भोग करने के लिये करता है ; अथवा अपने सत्वगुण से कुछ मदद पाकर इस संघर्ष को अपनी आंतरिक प्रभुता , अंत सुख शक्ति- संपति बढाने का साधन बना लेता है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध