"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 64": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

क्षत्रिय ,पराक्रमी पुरूष वे ही है जो इस आंतरिक और बाह्म संघर्ष को, यहां तक कि इसके अत्यंत भौतिक रूप अर्थात रण को भी अंगीकार करते हैं; युद्ध , विक्रम , महानता , और साहस उनका स्वभाव होता है ; धर्म की रक्षा करना और रण हा आहृान होते ही उत्साह के साथ उसमें कूद पड़ना उनका गुण और कर्तव्य होता है । धर्म और अधर्म , न्याय और अन्याय , संरक्षण करने वाली शक्ति और अत्याचार एवं पीड़न करने वाली शक्ति, इनके बीच सतत संघर्ष होता ही रहता है और एक बार जहां इसने स्थूल संग्राम का रूप धारण कर लिया तो सत्य, न्याय और धर्म की ध्वजा को लेकर चलने वाले पुरूष का यह काम नहीं कि वह अपने इस कर्म के हिंसामय और घोर रूप को देखकर घबरा जाये या कांप उठे ; उसके लिये यह कदापि उचित नहीं कि चूंकि हिंसक ओर क्रूर के प्रति उसमें एक दुर्बल अनकंपा है तथा जिस संहार - कार्य को करने का उसे आदेश मिला है उसकी विशालता को देखकर उसके जी में एक भौतिक त्रास होता है इसलिये वह अपने अनुयायियों और सहयोद्धाओं का साथ छोड दे, अपने पक्षवालों को धोखा दे, धर्म तथा न्याय की ध्वजा को धूल में घसीटे जाने दे या आततायियों के रक्त - रंजित पैरों तले कीचड़ में रौदें जाने दे । उसका धर्म और कर्तव्य युद्ध करने में है , युद्ध से पराड्मुख होने में नहीं ; यहां संहार करना नहीं , बल्कि संहार से हाथ खींचना ही पाप होगा। इसके बाद गुरू क्षण भर के लिये प्रस्तुत विषय से अलग होकर अर्जुन के आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से होने वाले दु:ख संबंधी विलाप का एक ओर उत्तर देते हैं ,जिसमें उसने कहा था कि इससे तो मेरा जीवन ही निस्सार हो जायेगा , क्योंकि तब जीवन के हेतु और विषय की नहीं रहेंगें । क्षत्रिय के जीवन का सच्चा उद्देश्य क्या है और किस बात में उसका वास्तविक सुख है।? अपने - आपको खुश रखना , परिवार को सुखी देखना और मित्रों और नातेदारों के बीच रहते हुए आराम से और मौज से सुख - शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करना क्षत्रिय - जीवन का सच्चा उद्देश्य नहीं है ; क्षत्रिय जीवन का सच्चा उद्देश्य है सत्य के लिये लड़ना और उसका बड़े- से - बड़ा सुख इसी बात में है कि उसे कोई ऐसा शुभ कार्य और अवसर प्राप्त हो जिसके लिये या तो वह अपना जीवन दान कर सके या विजयी होकर वीर जीवन का यश और गौरव प्राप्त कर सके। “क्षत्रिय के लिये धर्म युद्ध से बढ़कर और कोई श्रेय नहीं, ऐसे युद्ध का अवसर उसकी और स्वर्ग के खुले द्वारा की तरह आता है , तो क्षत्रिय सुखी हो जाता है। यदि तू धर्म की रक्षा के लिये यह युद्ध न करेगा तो तू स्वधर्म और कीर्ति का परित्याग करके पाप का भागी होगा।“[१] यदि वह ऐसे अवसर पर लड़ने से इंकार करेगा तो अपमानित होगा, लोग उसे कायर और दुर्बल कहेंगे और उसके क्षत्रियनाम की मर्यादा नष्ट होगी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 5.5

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