"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 98": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

निश्चय ही आत्म - संयम , आत्म - नियंत्रण कभी आसान नहीं होता। सभी बुद्धिमान् मुनष्य इस बात को जानते हैं कि उन्हें थोडा बहुत संयम करना चाहिये, अपने - आपको वश में रखना ही चाहिये और इन्द्रियों को वश में रखने के लिये जितने उपदेश मिलते हैं उतने शायद ही किसी दूसरी चीज के लिये मिलते हों। परंतु सामान्यतः यह उपदेश अपूर्ण रूप से ही दिया जाता है और इसका पालन भी अपूर्ण रूप से और वह भी बहुत ही मर्यादित और अपर्याप्त मात्रा में किया जाता है। पूर्ण आत्म - प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये परिश्रम करने वाला ज्ञानी, स्पष्ट द्रष्टा, बुद्धिमान् और विवेकी पुरूष भी यह देखता है कि इन्द्रियां उसे बेकाबू करके सहसा खींच ले जाती हैं । ऐसा क्यों होता है ? इसलिये कि मन स्भावतः इन्द्रियो के विषयों में आंतरिक रस लेता है, वह विषयो पर जम जाता है और उनको बुद्धि के लिये विचारों की व्यस्तता का और संकल्प के लिये तीव्र रूचि का विषय बना देता है। इसे आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना ,कामना से अर्थात् कामना की पूर्ति न होने पर या उसके विफल या विपरीत होने पर संताप ,आवेश और क्रोध उत्पन्न होता है, इससे मोह होता है , बुद्धि के बोधि और संकल्प दोनों ही स्थिर साक्षी पुरूष को देखना और उसी में स्थित रहना भूल जाते हैं , अपनी सदात्मा की स्मृति से पतन हो जाता है और इस पतन से बुद्धिगत संकल्प आच्छादित हो जाता है , नष्ट तक हो जाता है ।
उस समय के लिये तो हमारी स्मृति से उसका लोप ही हो जाता है, वह मोह के बादल में छिप जाता है और हम स्वयं मोह, क्रोध और शोक बन जाते हैं; आत्मा, बुद्धि और संकल्प नहीं रहते । इसलिये ऐसा न होने देना चाहिये और सब इंन्द्रियों को अच्छी तरह वश में ले आना चाहिये; क्योंकि इन्द्रियों के पूर्ण संयम से ही विश्व और स्थिर बुद्धि अपने स्थान में दृढतापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकती है। बुद्धि के अपने प्रयत्न से ही, केवल मानसिक संयम से ही यह कार्य पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं हो सकता; यह केवल ऐसी वस्तु के साथ युक्त होने से हो सकता है जो बुद्धि से ऊंची हो और स्थिरता तथा आत्म - प्रभुता जिसमें स्वभावसिद्ध हो। इस योग की सिद्धि भगवान् की ओर लगने से ,भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मेरी ओर’ लगने से, ‘मद्भावापन्न’ होने से, ‘सर्वात्मना मेरे समर्पित’ होने से , होती है; कारण मुक्त्दिाता श्री भगवान् हमारे अंदर हैं ,पर हमारा मन या हमारी बुद्धि या हमारी अपनी इच्छा, यह भागवत सत्ता नहीं है, ये तो केवल उपकरण हैं । हमें, जैसा कि गीता के अंत में बताया गया है, सर्वभाव से ईश्वर की ही शरण जाना और इसके लिये पहले उन्हें अपनी संपूर्ण सत्ता का ध्येय बनाना होगा और उनसे आत्म - संबंध बनाये रखना होगा। “सर्वथा मत्पर होकर, मुझमे योग मुक्त होकर स्थित रह” इसका यही अभिप्राय है। पर अभी यह संकेममात्र है ,जो गीता की प्रतिपादन शैली के अनुसार ही है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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