गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 97

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

अतः, बुद्धि को ऊध्र्वमुख और अंतर्मुख करना ही हमारा व्यवसाय होना चाहिये ,अर्थात् निश्चयपूर्वक बुद्धि को स्थिर रूप से एकाग्र करके अध्यवसाय के साथ पुरूष के प्रशांत आत्मज्ञान में स्थिर करना चाहिये । इसमें सबसे पहली बात कामना से छुटकारा पाना है; क्योंकि कामना ही सब दु:खों और कष्टों का मूल कारण है । कामना से छुटकारा पाने के लिये कामना के कारण का अर्थात् विषयों को पाने और भोगने के लिये इन्द्रियों की दौड़ का , अंत करना होगा। जब इस तरह से इन्द्रियां दौड़ पड़ें तब उन्हैं पीछे खींचना होगा, विषयों से सर्वथा हटा लेना होगा- जैसे कछुआ अपने अंगों को अपनी ढाल के अंदर कर लेता है , वैसे ही इन्द्रियों को उनके मूल उपादान मन में लाकर शांत करना होगा ,और मन को बुद्धि में और बुद्धि को आत्मा एवं उसके आत्मज्ञान में लाकर शांत करना होगा। यह आत्मा वह पुरूष है जो प्रकृति के कर्म को देखता है, उसमें फंसता नहीं; क्योंकि विषयों से मिलने वाली कोई भी चीज वह नहीं चाहता। यहां वह शंका उठ सकती है कि श्रीकृष्ण संन्यास का उपदेश दे रहे हैं , इसे दूर करने के लिये वे कहते हैं कि मैं किसी बाह्म वैराग्य या विषयों के भौतिक संन्यास की बात नहीं कर रहा । सांख्यों का संन्यास या प्रखर विरागी तपस्वियों के उपवासादि तप, कायक्लेश या त्याग आदि से मेरा अभिप्रया नहीं है , मैं तो आंतरिक वैरागय एवं कामना के परित्याग की बात कहता हूं ।
देही के जब तक देह है तब तक इस देह को नित्य दैहिक कर्म करने के योग्य बना रखने के लिये आहार देना ही होगा; निराहार होने से देही विषयों के साथ अपने दैहिक संबंध का ही विच्छेद कर सकता है, पर इससे वह आंतरिक संबंध नहीं छूटता जो उस संबंध को दु:खद बनाने का कारण है। उसमें विषयों का रस - राग और द्वेष जिसके दो पहलू है- तो बना ही रहता है । इसके विपरीत देही को तो, ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे वह राग - द्वेष से अलिप्त रहकर बाह्म स्पर्श को सह सके । अन्यथा विषय तो निवृत्त हो जाते हैं , परंतु आंतरिक निवृत्ति नहीं होती, मन निवृत्त नहीं हेाता; और इन्द्रियां मन की हैं , अंतरंग हैं ,इसलिये रस की आंतरिक निवृत्ति ही प्रभुता का एकमात्र वास्तविक लक्षण है । परंतु विषयो से इस प्रकार का निष्काम संपर्क , इन्द्रियो का इस प्रकार निर्लेप उपयोग कैसे संभव है । यह संभव है परम को देखने से, परम पुरूष के दर्शन से और बुव्द्धियोग के द्वारा उसे साथ सार्वान्त: करण से युक्त होन से, एकत्व को प्राप्त होने से क्योंकि; वह ‘एक’ आत्मा शांत है, अपने ही आंनद से संतुष्ट है, और एक बार यदि हमने अपने अंदर रहने वाले इस परम पुरूष का दर्शन कर लिया, अपने मन और संकल्प को उसके अंदर स्थापित कर दिया तो यह द्वद्वंशून्य आनंद, - इन्द्रियों के विषयों से पैदा होने वाले मानसिक सुख और दु:ख का स्थान अधिकृत कर सकता है। यही मुक्ति का सच्चा रास्ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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