"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 120": अवतरणों में अंतर

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कर्मो का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है। सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरूष के प्रति कर्म - यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। यह प्रकृति का अपने अंदर रहने वाले संत बहुपरूष की कामना को एक परम और अंत पुरूष के चरणों में भेंट चढ़ाना है। जीवन एक यज्ञवेदी है जिस पर प्रकृति अपने सब कर्मो और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुंच पायी हो । इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर - मन - प्राण में रहने वाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानता हो । प्रकृतिस्थ पुरूष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक पहुंचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह रूपस्वरूप होता है किसे वह पूजता है, आनंद का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढ़ूढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है । प्रकृतिगत क्षर पुरूष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान - प्रदान है। क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावतः परस्पर अबलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते हैं जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरे के सहारा बढ़ता और सबके सहारे जीता हो। जहां यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहां प्रकृति जबरदस्ती वसूलन करती है और इस प्रकार अपने जीवन - विधान रक्षा करती है ।  
कर्मो का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है। सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरूष के प्रति कर्म - यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। यह प्रकृति का अपने अंदर रहने वाले संत बहुपरूष की कामना को एक परम और अंत पुरूष के चरणों में भेंट चढ़ाना है। जीवन एक यज्ञवेदी है जिस पर प्रकृति अपने सब कर्मो और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुंच पायी हो । इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर - मन - प्राण में रहने वाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानता हो । प्रकृतिस्थ पुरूष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक पहुंचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह रूपस्वरूप होता है किसे वह पूजता है, आनंद का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढ़ूढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है । प्रकृतिगत क्षर पुरूष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान - प्रदान है। क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावतः परस्पर अबलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते हैं जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरे के सहारा बढ़ता और सबके सहारे जीता हो। जहां यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहां प्रकृति जबरदस्ती वसूलन करती है और इस प्रकार अपने जीवन - विधान रक्षा करती है ।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:११, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

फिर, इन सब रूपों और सत्ताओं के पीछे और इनके अंदर हमें यह भी प्रतीत होती है कि एक गूढ़, अक्षर, अनंत, देशकालातीत, नैव्र्यक्तिक, अव्यय सत् विद्यमान है , जो सारे अस्तित्व का एक अखंड आत्मभाव है, जिसमें सृष्टि के सब बहुभाव यथार्थ में एक हो जाते हैं। अतएव उस एक पुरूष - भाव में लौट आने पर व्यष्टिगत पुरूष का सक्रिय शांत व्यक्तित्व यह देखता है इस अखंड अनंत से जो कुछ निःसृत होता और उसके द्वारा जो कुछ धारित होता है वह उसके अक्षर और अलिप्त ऐक्य की शांति और समस्थिति में तथा विश्वव्यापकता की प्रशांत विशालता में मुक्त हो सकता है। अथवा चाहे तो इसमें जाकर वह व्यष्टिसत्ता से भी छुटकारा पा सकता है परंतु सबसे परम गुह्म उत्तमं रहस्य है पुरूषोत्ततत्व। पुरूषोत्तम परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो अनंत और सांत दोनों अवस्थाओं को अपने अदंर धारण किये हुए है और जिनमें व्यक्ति और निर्वाक्ति , एक ब्रह्म और अनेक भूत, आत्मसत्ता और भूत - भाव, संसार - कर्म और विश्वातीत शांति , प्रवृत्ति और निवृत्ति, ये सब - के - सब मिलकर एकत्व को प्राप्त होते हैं, एक साथ और अलग - अलग भी धारणा किये जाते हैं। परमेश्वर के अंदर ही सब वस्तुओं का गुह्म सत्य और निरक्षेप समन्वय होता है।
कर्मो का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है। सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरूष के प्रति कर्म - यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। यह प्रकृति का अपने अंदर रहने वाले संत बहुपरूष की कामना को एक परम और अंत पुरूष के चरणों में भेंट चढ़ाना है। जीवन एक यज्ञवेदी है जिस पर प्रकृति अपने सब कर्मो और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुंच पायी हो । इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर - मन - प्राण में रहने वाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानता हो । प्रकृतिस्थ पुरूष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक पहुंचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह रूपस्वरूप होता है किसे वह पूजता है, आनंद का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढ़ूढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है । प्रकृतिगत क्षर पुरूष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान - प्रदान है। क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावतः परस्पर अबलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते हैं जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरे के सहारा बढ़ता और सबके सहारे जीता हो। जहां यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहां प्रकृति जबरदस्ती वसूलन करती है और इस प्रकार अपने जीवन - विधान रक्षा करती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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