"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 93": अवतरणों में अंतर

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चूंकि मनुष्य अज्ञानपूर्वक और अशुद्ध बुद्धि के साथ कर्म करता है ,और ऐसी हालत में इन कार्मो के संबंध में उसका संकल्प भी अशुद्ध ही होता है, ,इसलिये वह कर्मबंधन में पड़ता है या बद्ध- सा जान पड़ता है ; नहीं तो मुक्त आत्मा के लिये तो कर्म बंधन का कारण है ही नहीं। इस अशुद्ध बुद्धि के कारण ही मनुष्य को आशा, भय, क्रोध और शोक तथा क्षणिक सुखी होता है ; अन्यथा पूर्ण शांति और स्वतंता के साथ कर्म किये जा सकते हैं। इसलिये सबसे पहले अर्जुन को बुद्धियोग ही बताया गया है। शुद्ध बुद्धि और फलतः शुद्ध संकल्प के साथ उस एक परमात्मा में स्थिर होकर, सबमें उस एक आत्मा को जानते हुए तथा उसकी सम शांति में से कार्य करते हुए और उपरितल के मनोमय पुरूष की हजारों प्रेरणाओं के वश इधर - उधर भटके बिना कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीता कहती है कि मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की है । एक बुद्धि एकाग्र, संतुलित , एक , समरस और केवल परम सत्य में ही संलग्न है: एकत्व उसकी विशिष्टता है और एकाग्र स्थिरता उसका प्राण । दूसरी बुद्धि में कोई स्थिर संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, उसमें अनके शाखा - पल्लवों से युक्त असंख्य विचार हैं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर - उधर भटका करती है।  
चूंकि मनुष्य अज्ञानपूर्वक और अशुद्ध बुद्धि के साथ कर्म करता है ,और ऐसी हालत में इन कार्मो के संबंध में उसका संकल्प भी अशुद्ध ही होता है, ,इसलिये वह कर्मबंधन में पड़ता है या बद्ध- सा जान पड़ता है ; नहीं तो मुक्त आत्मा के लिये तो कर्म बंधन का कारण है ही नहीं। इस अशुद्ध बुद्धि के कारण ही मनुष्य को आशा, भय, क्रोध और शोक तथा क्षणिक सुखी होता है ; अन्यथा पूर्ण शांति और स्वतंता के साथ कर्म किये जा सकते हैं। इसलिये सबसे पहले अर्जुन को बुद्धियोग ही बताया गया है। शुद्ध बुद्धि और फलतः शुद्ध संकल्प के साथ उस एक परमात्मा में स्थिर होकर, सबमें उस एक आत्मा को जानते हुए तथा उसकी सम शांति में से कार्य करते हुए और उपरितल के मनोमय पुरूष की हजारों प्रेरणाओं के वश इधर - उधर भटके बिना कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीता कहती है कि मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की है । एक बुद्धि एकाग्र, संतुलित , एक , समरस और केवल परम सत्य में ही संलग्न है: एकत्व उसकी विशिष्टता है और एकाग्र स्थिरता उसका प्राण । दूसरी बुद्धि में कोई स्थिर संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, उसमें अनके शाखा - पल्लवों से युक्त असंख्य विचार हैं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर - उधर भटका करती है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

एक बार जहां तूने इस मार्ग पर चलना शुरू किया कि तू देखेगा कि कोई कदम व्यर्थ नहीं रखा गया, प्रत्येक साधारण - सी गति भी एक कमाई होगी; तुझे ऐसी बाधा नहीं मिलेगी जो तेरी प्रगति को अटका सके। कितनी निर्भीक और निरपेक्ष प्रतिज्ञा है। परंतु सर्वत्र विघ्नों से घिरकर लुढ़कते - पुढ़कते चलने वाले चंचल मन को , भयभीत और शंकित मन को सहसा इस पर पूर्ण भरोसा नहीं होता। इस प्रतिज्ञा का व्यापक और पूर्ण सत्य भी तब तक साफ समझ में नहीं आता जब तक गीता के प्रारम्भिक वचनों के साथ उसका यह अंतिम वचन मिलाकर न पढा जाये- “सब धर्मो को छोड़ दे और केवल एक मेरी शरण में चला आ; मैं मुझे सब पापों और अशभां से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर” । परंतु भगवान् द्वारा मनुष्य को कहे हुए इस गंभीर और हृदयस्पर्शी शब्द के साथ गीता का वर्णन आरंभ नहीं किया गया है, आरंभ मे तो इस मार्ग पर चलने के लिये आवश्यक ज्योति की कुछ किरणें भर छिटका दी गयी हैं और वे भी अंतिम वचन की नाई अंतरात्मा का स्पश्र करने के लिये नहीं, बल्कि उसकी बुद्धि को प्रकाश देने के लिये । पहले- पहल मनुष्य के सुहृद् और प्रेमी भगवान् नहीं बोले , बल्कि वे भगवान् बोले हैं जो उसके पथ - प्रदर्शक और गुरू है, शिष्य वास्तविक आत्मा को, जगत् के स्वभाव को और अपने कर्म के उद्गम स्थान को नहीं जानता; उसके इस अज्ञान को उन्हें दूर करना था।
चूंकि मनुष्य अज्ञानपूर्वक और अशुद्ध बुद्धि के साथ कर्म करता है ,और ऐसी हालत में इन कार्मो के संबंध में उसका संकल्प भी अशुद्ध ही होता है, ,इसलिये वह कर्मबंधन में पड़ता है या बद्ध- सा जान पड़ता है ; नहीं तो मुक्त आत्मा के लिये तो कर्म बंधन का कारण है ही नहीं। इस अशुद्ध बुद्धि के कारण ही मनुष्य को आशा, भय, क्रोध और शोक तथा क्षणिक सुखी होता है ; अन्यथा पूर्ण शांति और स्वतंता के साथ कर्म किये जा सकते हैं। इसलिये सबसे पहले अर्जुन को बुद्धियोग ही बताया गया है। शुद्ध बुद्धि और फलतः शुद्ध संकल्प के साथ उस एक परमात्मा में स्थिर होकर, सबमें उस एक आत्मा को जानते हुए तथा उसकी सम शांति में से कार्य करते हुए और उपरितल के मनोमय पुरूष की हजारों प्रेरणाओं के वश इधर - उधर भटके बिना कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीता कहती है कि मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की है । एक बुद्धि एकाग्र, संतुलित , एक , समरस और केवल परम सत्य में ही संलग्न है: एकत्व उसकी विशिष्टता है और एकाग्र स्थिरता उसका प्राण । दूसरी बुद्धि में कोई स्थिर संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, उसमें अनके शाखा - पल्लवों से युक्त असंख्य विचार हैं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर - उधर भटका करती है।


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