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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

निःसंदेह योगी फिर भी कुछ काल तक इस शरीर में रहेगा, पर अब तो गिरिगुहा, जंगल या पर्वत - शिखर पर ही उसके रहने की जगह होगी और सतत बाह्म चेतनाशून्य समाधि ही उसकी एकमात्र सुखस्थिति और जीवनचर्या होगी। परंतु पहली बात को यह है कि गीता यह नहीं कहती कि इस एकांतिक योग का अभ्यास करते हुए अन्य सब कर्मो का त्याग कर देना होगा। गीता कहती है कि यह योग उस मनुष्य के लिये नहीं है जो आहार , विहार, निद्रा और कर्म छोड़ दे, न उसके लिये है जो इन सब चीजों में बेहद रमा करे; बल्कि निद्रा , जागरण, आहार, विहार ओर कर्म - प्रयास सब ‘युक्त’ होना चाहिये । प्रायः इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि यह सब परिमित , नियमित और उपयुक्त मात्रा में होना चाहिये, इसका यह आशय हो भी सकता है। परंतु जो भी हो, योग प्राप्त हो चुका हो तब इन सबको एक दूसरे ही अर्थ में ‘ युक्त ’ होना चाहिये, उस अर्थ में जो इस शब्द का साधारण अर्थ है और जिस अर्थ में यह शब्द गीता के अन्य सब स्थानों में व्यवहत हुआ है।
खाते - पीते , सोते - जागते और कर्म करते, अर्थात् सब अवस्थाओं में योगी तब भगवान् के साथ ‘युक्त‘ रहेगा और वह जो कुछ करेगा, भगवान् को भी अपनी आत्मा और ‘ सर्वमिदम् ’ तथा अपने जीवन और कर्म का आश्रय तथा आधार जानकर करेगा। वासना - कामना, अहंकार , व्यक्तिगत संकल्प और मन के विचार केवल निम्न प्रकृति में ही कर्म के प्रेरक होते हैं; परंतु जब अहंकार नष्ट हो जाता है और योगी ब्रह्म हो जाता है , जब वह परात्पर चैतन्य और विश्व - चैतन्य में ही रहता और स्वयं वही बन जाता है , तब कर्म उसीमें से स्वतः निकलता है, उसीमें से वहज्योतिर्मय ज्ञान निकलता है , जो मन के विचार से ऊपर की चीज है, उसीमें से वह शक्ति निकलती है, जो व्यक्तिगत संकल्प से विलक्षण और बहुत अधिक बलवती है और जो उसके लिये कर्म करती और उसके फल को लाती है; फिर व्यक्तिगत कर्म नहीं रह जाता , सब कर्म ब्रह्म में लिया जाता और भगवान् के द्वारा धारण किया जाता है।कारण इस आत्म - साक्षात्कार और पृथक्कारी अहंभावापन्न मन और उसके विचार , अनुभव और कर्म के प्रेरक भाव का ब्राह्मी चेतना में निर्वाण करने से योग का जो फल[१]प्राप्त होता है, उसका जो वर्णन गीता ने किया है उसमें विश्व - चैतन्य का समावेश है, यद्यपि यहां उसे एक नवीन ज्ञानलोक में उठा लिया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योगक्षेमं वहाम्यहम्।

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