"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-65": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
== पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4>
<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-65 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-65 का हिन्दी अनुवाद</div>


श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो लोग सांख्यज्ञान में नियुक्त हैं, उनके धर्म का मैंने यथावत् रूप से वर्णन किया। अब तुमसे पुनः सम्पूर्ण योगधर्म का प्रतिपादन करूँगा, सुनो। वह ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों द्वारा सम्मत योग सबीज और निर्बीज के भेद से दो प्रकार का है। उन दोनों में ही शास्त्रोक्त सदाचार समान है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व- इन आठ भेदों वाले ऐश्वर्य पर अधिकार करके योग का अनुष्ठान किया जाता है। सम्पूर्ण देवताओं का सायुज्य पराश्रित योगधर्म है। ज्ञान सम्पूर्ण योग का मूल है, ऐसा समझो। साधक को व्रत, उपवास और नियमों द्वारा उस सम्पूर्ण ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये। बुद्धिमती पार्वती! अविनाशी आत्मा में बुद्धि, मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की एकाग्रता हो, यही योगियों का ज्ञान है। ब्राह्मण, अग्नि और देवमन्दिरों की पूजा करे तथा पूर्णतः सत्वगुण का आश्रय लेकर अमांगलिक भाव को त्याग दे। दान, अध्ययन, श्रद्धा, व्रत, नियम, सत्य, आहार शुद्धि, शौच और इन्द्रिय-निग्रह- इनके द्वारा तेज की वृद्धि होती है और पाप धुल जाता है। जिसका पाप धुल गया है, वह पहले तेजस्वी, निराहार, जितेन्द्रिय, अमोघ, निर्मल और मन का दमन करने में समर्थ हो जाय। तत्पश्चात् योग का अभ्यास करे। एकान्त निर्जन प्रदेशमें,जो सब ओर से घिरा हुआ और पवित्र हो,कोमल कुशों से एक आसन बनावे और उसे वहाँ भली भाँति बिछा दे। उस आसन पर बैठकर अपने शरीर और गर्दन को सीधी किये रहे। मन में किसी प्रकार की व्यग्रता न आने दे। सुखपूर्वक बैठकर अपने अंगों को हिलने-डुलने न दे। अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात न करते हुए ध्यानमग्न हो जाय। देवि! मन को दृढ़तापूर्वक स्थापित करना योग की सिद्धि का सूचक है, अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मन को सदा स्थिर रखे। त्वचा, कान, जिह्वा, नासिका और नेत्र- इन सबको विषयों की ओर से समेटे। पाँचों इन्द्रियों को एकाग्र करके विद्वान पुरूष उन्हें मन में स्थापित करे। फिर सारे संकल्पों को हटाकर मन को आत्मा में स्थापित करे। जब मनसहित ये पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा में स्थिरहो जाती हैं, तब प्राण और अपान वायु एक ही साथ वश में हो जाते हैं। प्राण के वश में हो जाने पर योगसिद्धि अटल हो जाती है। सारे शरीर को निकट से उघाड़-उघाड़कर देखे और यह क्या है? इसका चिन्तन करे। शरीर के भीतर जो प्राणों की गति है, उस पर भी विचार करे। तत्पश्चात् मूर्धा, अग्नि और शरीर का परिपालन करे। मूर्धा में प्राण की स्थिति है, जो श्वासरूप में वर्तमान होकर चेष्टा करता है। सदा सन्नद्ध रहने वाला प्राण ही सम्पूर्ण भूतों का आत्मा सनातन पुरूष है, वही मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभूत और विषयरूप है। वस्तिके मूलभाग, गुदा और अग्नि के आश्रित हो अपानवायु सदा मल-मूत्र का वहन करती हुई अपने कार्य में प्रवृत्त होती है। देहों में प्रवृत्ति अपानवायु का कर्म मानी गयी है। जो वायु समस्त धातुओं को ऊपर उठाती हुई अपान से ऊपर की ओर प्रवृत्त होती है, उसे अध्यात्मकुशल मनुष्य ‘उदान’ मानते हैं। जो वायु मनुष्यों के शरीरों की एक-एक संधि में व्याप्त होकर उनकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में प्रवृत्तक होती है, उसे ‘व्यान’ कहते हैं। जो धातुओं और अग्नि में भी व्याप्त है, वह अग्निस्वरूप ‘समान’ वायु है। वही अन्तकाल में समस्त चेष्टाओं का निवत्र्तक होता है।
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो लोग सांख्यज्ञान में नियुक्त हैं, उनके धर्म का मैंने यथावत् रूप से वर्णन किया। अब तुमसे पुनः सम्पूर्ण योगधर्म का प्रतिपादन करूँगा, सुनो। वह ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों द्वारा सम्मत योग सबीज और निर्बीज के भेद से दो प्रकार का है। उन दोनों में ही शास्त्रोक्त सदाचार समान है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व- इन आठ भेदों वाले ऐश्वर्य पर अधिकार करके योग का अनुष्ठान किया जाता है। सम्पूर्ण देवताओं का सायुज्य पराश्रित योगधर्म है। ज्ञान सम्पूर्ण योग का मूल है, ऐसा समझो। साधक को व्रत, उपवास और नियमों द्वारा उस सम्पूर्ण ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये। बुद्धिमती पार्वती! अविनाशी आत्मा में बुद्धि, मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की एकाग्रता हो, यही योगियों का ज्ञान है। ब्राह्मण, अग्नि और देवमन्दिरों की पूजा करे तथा पूर्णतः सत्वगुण का आश्रय लेकर अमांगलिक भाव को त्याग दे। दान, अध्ययन, श्रद्धा, व्रत, नियम, सत्य, आहार शुद्धि, शौच और इन्द्रिय-निग्रह- इनके द्वारा तेज की वृद्धि होती है और पाप धुल जाता है। जिसका पाप धुल गया है, वह पहले तेजस्वी, निराहार, जितेन्द्रिय, अमोघ, निर्मल और मन का दमन करने में समर्थ हो जाय। तत्पश्चात् योग का अभ्यास करे। एकान्त निर्जन प्रदेशमें,जो सब ओर से घिरा हुआ और पवित्र हो,कोमल कुशों से एक आसन बनावे और उसे वहाँ भली भाँति बिछा दे। उस आसन पर बैठकर अपने शरीर और गर्दन को सीधी किये रहे। मन में किसी प्रकार की व्यग्रता न आने दे। सुखपूर्वक बैठकर अपने अंगों को हिलने-डुलने न दे। अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात न करते हुए ध्यानमग्न हो जाय। देवि! मन को दृढ़तापूर्वक स्थापित करना योग की सिद्धि का सूचक है, अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मन को सदा स्थिर रखे। त्वचा, कान, जिह्वा, नासिका और नेत्र- इन सबको विषयों की ओर से समेटे। पाँचों इन्द्रियों को एकाग्र करके विद्वान पुरूष उन्हें मन में स्थापित करे। फिर सारे संकल्पों को हटाकर मन को आत्मा में स्थापित करे। जब मनसहित ये पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा में स्थिरहो जाती हैं, तब प्राण और अपान वायु एक ही साथ वश में हो जाते हैं। प्राण के वश में हो जाने पर योगसिद्धि अटल हो जाती है। सारे शरीर को निकट से उघाड़-उघाड़कर देखे और यह क्या है? इसका चिन्तन करे। शरीर के भीतर जो प्राणों की गति है, उस पर भी विचार करे। तत्पश्चात् मूर्धा, अग्नि और शरीर का परिपालन करे। मूर्धा में प्राण की स्थिति है, जो श्वासरूप में वर्तमान होकर चेष्टा करता है। सदा सन्नद्ध रहने वाला प्राण ही सम्पूर्ण भूतों का आत्मा सनातन पुरूष है, वही मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभूत और विषयरूप है। वस्तिके मूलभाग, गुदा और अग्नि के आश्रित हो अपानवायु सदा मल-मूत्र का वहन करती हुई अपने कार्य में प्रवृत्त होती है। देहों में प्रवृत्ति अपानवायु का कर्म मानी गयी है। जो वायु समस्त धातुओं को ऊपर उठाती हुई अपान से ऊपर की ओर प्रवृत्त होती है, उसे अध्यात्मकुशल मनुष्य ‘उदान’ मानते हैं। जो वायु मनुष्यों के शरीरों की एक-एक संधि में व्याप्त होकर उनकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में प्रवृत्तक होती है, उसे ‘व्यान’ कहते हैं। जो धातुओं और अग्नि में भी व्याप्त है, वह अग्निस्वरूप ‘समान’ वायु है। वही अन्तकाल में समस्त चेष्टाओं का निवत्र्तक होता है।

०७:५३, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-65 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो लोग सांख्यज्ञान में नियुक्त हैं, उनके धर्म का मैंने यथावत् रूप से वर्णन किया। अब तुमसे पुनः सम्पूर्ण योगधर्म का प्रतिपादन करूँगा, सुनो। वह ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों द्वारा सम्मत योग सबीज और निर्बीज के भेद से दो प्रकार का है। उन दोनों में ही शास्त्रोक्त सदाचार समान है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व- इन आठ भेदों वाले ऐश्वर्य पर अधिकार करके योग का अनुष्ठान किया जाता है। सम्पूर्ण देवताओं का सायुज्य पराश्रित योगधर्म है। ज्ञान सम्पूर्ण योग का मूल है, ऐसा समझो। साधक को व्रत, उपवास और नियमों द्वारा उस सम्पूर्ण ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये। बुद्धिमती पार्वती! अविनाशी आत्मा में बुद्धि, मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की एकाग्रता हो, यही योगियों का ज्ञान है। ब्राह्मण, अग्नि और देवमन्दिरों की पूजा करे तथा पूर्णतः सत्वगुण का आश्रय लेकर अमांगलिक भाव को त्याग दे। दान, अध्ययन, श्रद्धा, व्रत, नियम, सत्य, आहार शुद्धि, शौच और इन्द्रिय-निग्रह- इनके द्वारा तेज की वृद्धि होती है और पाप धुल जाता है। जिसका पाप धुल गया है, वह पहले तेजस्वी, निराहार, जितेन्द्रिय, अमोघ, निर्मल और मन का दमन करने में समर्थ हो जाय। तत्पश्चात् योग का अभ्यास करे। एकान्त निर्जन प्रदेशमें,जो सब ओर से घिरा हुआ और पवित्र हो,कोमल कुशों से एक आसन बनावे और उसे वहाँ भली भाँति बिछा दे। उस आसन पर बैठकर अपने शरीर और गर्दन को सीधी किये रहे। मन में किसी प्रकार की व्यग्रता न आने दे। सुखपूर्वक बैठकर अपने अंगों को हिलने-डुलने न दे। अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात न करते हुए ध्यानमग्न हो जाय। देवि! मन को दृढ़तापूर्वक स्थापित करना योग की सिद्धि का सूचक है, अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मन को सदा स्थिर रखे। त्वचा, कान, जिह्वा, नासिका और नेत्र- इन सबको विषयों की ओर से समेटे। पाँचों इन्द्रियों को एकाग्र करके विद्वान पुरूष उन्हें मन में स्थापित करे। फिर सारे संकल्पों को हटाकर मन को आत्मा में स्थापित करे। जब मनसहित ये पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा में स्थिरहो जाती हैं, तब प्राण और अपान वायु एक ही साथ वश में हो जाते हैं। प्राण के वश में हो जाने पर योगसिद्धि अटल हो जाती है। सारे शरीर को निकट से उघाड़-उघाड़कर देखे और यह क्या है? इसका चिन्तन करे। शरीर के भीतर जो प्राणों की गति है, उस पर भी विचार करे। तत्पश्चात् मूर्धा, अग्नि और शरीर का परिपालन करे। मूर्धा में प्राण की स्थिति है, जो श्वासरूप में वर्तमान होकर चेष्टा करता है। सदा सन्नद्ध रहने वाला प्राण ही सम्पूर्ण भूतों का आत्मा सनातन पुरूष है, वही मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभूत और विषयरूप है। वस्तिके मूलभाग, गुदा और अग्नि के आश्रित हो अपानवायु सदा मल-मूत्र का वहन करती हुई अपने कार्य में प्रवृत्त होती है। देहों में प्रवृत्ति अपानवायु का कर्म मानी गयी है। जो वायु समस्त धातुओं को ऊपर उठाती हुई अपान से ऊपर की ओर प्रवृत्त होती है, उसे अध्यात्मकुशल मनुष्य ‘उदान’ मानते हैं। जो वायु मनुष्यों के शरीरों की एक-एक संधि में व्याप्त होकर उनकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में प्रवृत्तक होती है, उसे ‘व्यान’ कहते हैं। जो धातुओं और अग्नि में भी व्याप्त है, वह अग्निस्वरूप ‘समान’ वायु है। वही अन्तकाल में समस्त चेष्टाओं का निवत्र्तक होता है।



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