"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 79-88" के अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा एवं उनके प्रति ऐकानितकभाव विषयक तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
 
इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा एवं उनके प्रति ऐकानितकभाव विषयक तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०४:४५, ३ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 79-88 का हिन्दी अनुवाद

जनमेजय ने पूछा - मुने ! वैकारिक पुरुष भगवान पुरुषोत्तम को कैसे प्राप्त कर सकता है ? यह सब आप अपने अनुभव के अनुसार बताइये और उसकी प्रवृत्ति का भी क्रमयाः वर्णन कीजिये।

वैशम्पायनजी ने कहा - जो अत्यन्त सूक्ष्म, सत्त्वगुध से संयुक्त तथा अकार, उकार और मकार- इन तीन अक्षरों से युक्त प्रणव स्वरूप है, उस परम पुरुष परमात्मा को पचीसवाँ तत्त्वरूप पुरुष (जीवात्मा) कर्तत्व के अहंकार से शून्य होने पर प्राप्त करता है। इस प्रकार आतमा और अनात्मा का विवेक कराने वाला सांख्य, चित्तवृत्तियों के निरोध का उपदेश देने वाला योग, जाव और ब्रह्मा के अीोद का बोध कराने वाला वेदों का आरण्यक भाग (उपनिषद्) तथा भक्तिमार्ग का प्रतिपादन करने वाला पान्चरात्र आगम - ये सब शास्त्र एक लक्ष्य के साधक होने के कारण एक बताये जाते हैं। ये सब एक दूसरे के अंग हैं। सारे कर्मों को भगवान नारायण के चरणारविन्दों मेंसमर्पित कर देना यह एकान्त भक्तों का धर्म है। राजन् ! जैसे सारे जल-प्रवाह समुद्र से ही प्रसार को प्राप्त होते हैं और समुद्र में ही आकर मिलत हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी जल के महान् पगवाह नारायण से ही प्रकट होकर फिर उन्हीं में लीन हो जाते हैं। भरतभूषण ! कुरुनन्दन ! यह तुम्हें सात्वत धर्म का परिचय दिया गया है। यदि तुमसे हो सके तो यथोचित रूप से इस धर्म का पालन करो। इस प्रकार महाभाग नारदजी ने मेरे गुरु व्यासजी से श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थों और काषायवष्त्रधारी संन्यासियों की अविनश्वर एकान्त गति का वर्णन किया है। व्यासजी ने भी बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर को प्रेमपूर्वक इस धर्म का उपदेश दिया। गुरु के मुख से प्रकट हुए उसी धर्म का मैने यहाँ तुम्हारे लिये वर्णन किया है। नृपश्रेष्ठ ! इस तरह यह धर्म दुष्कर है। तुम्हारी तरह दूसरे लोग भी इसके विषय में मोहित हो जाते हैं। रजानाथ ! भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण लोकों के पालक, मोहक, संहारक तािा कारण हें (अतः तुम उन्हीं का भक्तिभाव से भजन करो।)।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा एवं उनके प्रति ऐकानितकभाव विषयक तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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