श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 89 श्लोक 1-14

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दशम स्कन्ध: एकोननवतितमोऽध्यायः(89) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोननवतितमोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा भगवान् का मरे हुए ब्राम्हण-बालकों को वापस लाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार सरस्वती नदी के पावन तट पर यज्ञ प्रारम्भ करने के लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगों में इस विषय पर वाद-विवाद चला कि ब्रम्हा, शिव और विष्णु में सबसे बड़ा कौन है ? परीक्षित्! उन लोगों ने यह बात जानने के लिये ब्रम्हा, विष्णु और शिव की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रम्हा के पुत्र भृगुजी को उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रम्हाजी की सभा में गये । उन्होंने ब्रम्हाजी के धैर्य आदि की परीक्षा करने के लिये न उन्हें नमस्कार किया न तो उनकी स्तुति ही की। इस पर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रम्हाजी अपने तेज से दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया । परन्तु जब समर्थ ब्रम्हाजी ने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मन में उठे हुए क्रोध को भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धि से दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणि-मन्थन से उत्पन्न अग्नि को जल से बुझा दे । वहाँ से महर्षि भृगु कैलास में गये। देवाधिदेव भगवान् शंकर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से खड़े होकर उनका आलिंगन करने के लिये भुजाएँ फैला दीं परन्तु महर्षि भृगु ने उनसे आलिंगन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेद की मर्यादा का उल्लंघन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।’ भृगुजी की यह बात सुनकर भगवान् शंकर क्रोध के मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगु को मारना चाहा । परन्तु उसी समय भगवती सती ने उनके चरणों परर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान् विष्णु के निवासस्थान वैकुण्ठ में गये । उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी की गोद में अपना सिर रखकर लेते हुए थे। भृगुजी ने जाकर उनके वक्षःस्थल पर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी के साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शैय्या से नीचे उतरकर मुनि को सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान् ने कहा—ब्रह्मन्! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसन पर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो! मुझे आपके शुभागमन का पता न था। इसी से मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये । महामुने! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों कहकर भृगुजी के चरणों को भगवान् अपने हाथों से सहलाने लगे और बोले—‘महर्षे! आपके चरणों का जल तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहने वाले लोकपालों को पवित्र कीजिये । भगवन्! आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणों से चिन्हित मेरे वक्षःस्थल पर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’ श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान् ने अत्यन्त गम्भीर वाणी से इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्ति के उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखों में आँसू छलक आये और वे चुप हो गये । परीक्षित्! भृगुजी वहाँ से लौटकर ब्रम्हवादी मुनियों के सत्संग में आये और उन्हें ब्रम्हा, शिव और विष्णु भगवान् के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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