महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 84-103

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एक सौ साठवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (उलूकदूतागमनपर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ साठवाँ अध्याय: श्लोक 95-125 का हिन्दी अनुवाद

पार्थ ! अत्‍यन्‍त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानोंसे श्रेष्‍ठ शल्‍य तथा युद्धमें इन्‍द्रके समान पराक्रमी एवं बलवानोंमें अग्रगण्‍य द्रोणाचार्यको युद्धमें परास्‍त किये बिना तुम यहाँ राज्‍य कैसे लेना चाहते हो। कुन्‍तीपुत्र !आचार्य द्रोण ब्रह्मवेद और धनुर्वेद इन दोनों के पारंगत पण्डित हैं । ये युद्धका भार वहन करनेमें समर्थ, अक्षोभ्‍य, सेनाके मध्‍यभागमें विचरनेवाले तथा युद्धके मैदानसे पीछे न हटनेवाले हैं। इन महातेजस्‍वी द्रोणको जो तुम जीतने की इच्‍छा रखते हो, वह मिथ्‍या साहसमात्र है। वायुने सुमेरू पर्वतको उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमार सुननेमें नहीं आया है ( इसी प्रकार तुम्‍हारे लिये भी आचार्य को जीतना असम्‍भव है)। तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, वह यदि सत्‍य हो जाय, तब तो हवा मंरूको उडा ले, स्‍वर्गलोक इस पृथ्‍वीपर गिर पडे अथवा युग ही बदल जाय। अर्जुन हो या दूसरा कोई, जीवनकी इच्‍छा रखनेवाला कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें इन शत्रुदमन आचार्यके पास पहुँचकर कुशलपूर्वक घरको लौट सके। ये दोनों द्रोण और भीष्‍म जिसे मारनेको निश्‍चय कर लें अथवा उनके भयानक अस्‍त्र आदिसे जिसके शरीरका स्‍पर्श हो जाय, ऐसा कोई भी भूतलनिवासी मरणधर्मा मनुष्‍य युद्धमें जीवित कैसे बच सकता है। जैसे देवता स्‍वर्गकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्‍तर दिशाओंके नरेश तथा काम्‍बोज, शक, खश, शाल्‍व, मत्‍स्‍य, कुरू और मध्‍यप्रदेशके सैनिक एवं मलेच्‍छ, पुलिन्‍द, द्रविद, आन्‍ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेनाकी रक्षा करते हैं, जो देवताओंकी सेनाके समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराजकी (समुद्रतुल्‍य) उस सेनाको क्‍या तुम कूपमण्‍डूककी भाँति अच्‍छी तरह समझ नहीं पाते हैंओ अल्‍पबुद्धि मूढ अर्जुन ! जिसका वेग युद्धकालमें गंगा के वेगके समान बढ़ जाता है और जिसे पार करना असम्‍भव है, नाना प्रकारके जनसमुदायसे भरी हुई मेरी उस विशाल वाहिनीके साथ तथा गजसेनाके बीचमें खडे हुए मुझ दुर्योधनके साथ भी तुम युद्धकी इच्‍छा कैसे रखते हो। भारत ! हम अच्‍छी तरह जानते हैं कि तुम्‍हारे पास अक्षय बाणोंसे भरे हुए दो तरकस हैं, अग्निदेव दिया हुआ दिव्‍य रथ है और युद्धकालमें उसपर दिव्‍य ध्‍वजा फहराने लगती है। अर्जुन ! बातें न बनाकर युद्ध करो । बहुत शेखी क्‍यों बघारते हो,विभिन्‍न प्रकारोंसे युद्ध करनेपर ही राज्‍यकी सिद्धी हो सकती है । झूठी आत्‍मप्रशंसा करनेसे इस कार्यमें सफलता नहीं मिल सकती। धनंजय ! यदि जगत में अपनी झूठी प्रशंसा करनेसे ही अभीष्‍ट कार्यकी सिद्धि हो जाती, तब तो सब लोग सिद्धकाम हो जाते; क्‍योंकि बातें बनानेमें कौन दरिद्र और दुर्बल होगा। मैं जानता हूँ कि तुम्‍हारे सहायक वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्‍हारे पास चार हाथ लंबा गाण्‍डीव धनुष है तथा मुझे यह भी मालूम है कि तुम्‍हारे जैसा दूसरा कोई योद्धा नहीं है; यह सब जानकर भी मैं तुम्‍हारे इस राज्‍यका अपहरण करता हूं। कोई भी मनुष्‍य नाममात्रके धर्मद्वारा सिद्धि नहीं पाता, केवल विधाता ही मानसिक संकल्‍पमात्रसे सबको अपने अनुकूल और अधीन कर लेता है। तुम रोते-बिलखते रह गये और मैंने तेरह वर्षोंतक तुम्‍हारा राज्‍य भोगा। अब भाइयोंसहित तुम्‍हारा वध करके आग्र भी मैं ही इस राज्‍य का शासन करूंगा दास अर्जुन ! जब तुम जुएके दांवपर जीत लिये गये, उस समय तुम्‍हारा गाण्‍डीव धनुष कहाँ था भीमसेनका बल भी उस समय कहाँ चला गया था। गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्‍डीवधारी अर्जुनसे भी उस समय सती साध्‍वी द्रौपदीका सहारा लिये बिना तुमलोगोंका दासभावसेउद्धार न हो सका। तुम सब लोग अनुष्‍योचित दीन दशाको प्राप्‍त हो दासभावमें स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्‍णाने ही दासताके संकट में पडे़ हुए तुम सब लोगोंको छुडाया था। मैंने जो उन दिनों तुमलोगोंको हिजडा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्‍योंकि अज्ञातवासके समय विराटनगरमें अर्जुनको अपने सिरपर स्त्रियोंकी भांति वेणी धारण करनी पडी। कुन्‍तीकुमार ! तुम्‍हारे भाई भीमसेनको राजा विराटके रसोईघरमें रसोइये के काममें ही संलग्‍न रहकर जो भारी श्रम उठाना पडा, वह सब मेरा ही पुरूषार्थ है। इसी प्रकार सदासे ही क्षत्रियोंने अपने विरोधी क्षत्रियको दण्‍ड दिया है। इसीलिये तुम्‍हें भी सिरपर वेणी रखाकर और हिजडोंका वेष बनाकर राजाके अन्‍त:पुर में लडकियोंको नचाने का काम करना पडा। फाल्‍गुन ! श्रीकृष्‍णके या तुम्‍हारे भयसे मैं राज्‍य नहीं लौटाऊँगा । तुम श्रीकृष्‍णके साथ आकर युद्ध करो। माया, इन्‍द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्रामभूमिमें हथियार उठाये हुए वीरके क्रोध और सिंहनाद को ही बढती हैं (उसे भयभीत नहीं कर सकती हैं)। हजारों श्रीकृष्‍ण और सैंकडों अर्जुन भी अमाघ बाणों वाले मुझ वीरके पास आकर दसों दिशाओं में भाग जायेंगे। तुम भीष्‍मके साथ युद्ध करो या सिरसे पहाड फोडो या सैनिकोंके अत्‍यन्‍त गहरे महासागरको दोनों बाँहोंसे तैरकर पार करो । हमारे सैन्‍यरूपी महासमुद्रमें कृपाचार्य महामत्‍स्‍यके समान हैं, विविंशति उसे भीतर रहनेवाला महान्‍ सर्प है, वृहद्बल उसके भीतर उठनेवाले विशाल ज्‍वारके समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्‍स्‍यके स्‍थानमें है। भीष्‍म उसे असीम वेग है, द्रोणाचार्यरूपी ग्राहके होनेसे इस सैन्‍यसागर में प्रवेश करना अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है, कर्ण और शल्‍य क्रमश: मत्‍स्‍य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्‍बोजराज सुद‍क्षिण इसमें बडबानल हैं। दु:शासन उसके तीव्र प्रवाहके समान है, शल और शल्‍य मत्‍स्‍य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकरके समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरूमित्र उसकी गम्‍भीरता है, दुर्मर्षर्ण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। भांति-भांतिके शस्‍त्र इस सैन्‍यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होनेके साथ ही खूब बढा हुआ है। इसमें प्रवेश करनेपर अधिक श्रमके कारण जब तुम्‍हारी चेतना नष्‍ट हो जायेगी, तुम्‍हारे समस्‍त बन्‍धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्‍हारे मनको बढा संताप होगा। पार्थ ! जैसे अपवित्र मनुष्‍यका मन स्‍वर्गकी ओरसे निवृत्‍त हो जाता है (क्‍यों‍कि उसके लिये स्‍वर्गकी प्राप्ति असम्‍भव है), उसी प्रकार तुम्‍हारा मन भी उस समय इस पृथ्‍वीपर राज्‍यशासन करनेसे निराश होकर निवृत्‍त जायेगा । अर्जुन ! शान्‍त होकर बैठ जाओ । राज्‍य तुम्‍हारे लिये अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। जिसने तपस्‍या नहीं की है, वह जैसे स्‍वर्गपाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्‍यकी अभिलाषा की है।

इस प्रकार श्री महाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत उलूकदूतागमनापर्वमें दुर्योधनवाक्‍यविषयक एक सौ साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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