श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 76 श्लोक 1-15

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दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितमोऽध्यायः(76) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब मनुष्य की-सी लीला करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण का एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बतलाया जायगा कि सौभ नामक विमान का अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान् के हाथ से मारा गया । शाल्व शिशुपाल का सखा था और रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर बारात में शिशुपाल की ओर से आया हुआ था। उस समय यदुवंशियों ने युद्ध में जरासन्ध आदि साथ-साथ शाल्व को भी जीत लिया था । उस दिन सब राजाओं के सामने शाल्व ने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं पृथ्वी से यदुवंशियों को मिटाकर छोडूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना’।

परीक्षित्! मूढ़ शाल्व ने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान् पशुपति की आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिन में केवल एक बार मुट्टी भर राख फाँक लिया करता था । यों तो पार्वतीपति भगवान् शंकर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्व का घोर संकल्प जानकार एक वर्ष के बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्व से वर माँगने के लिये कहा । उस समय शाल्व ने यह वर माँगा कि ‘मुझे आप ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, गन्धर्व, नाग और राक्षसों से तोडा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियों के लिये अत्यन्त भयंकर हो’।भगवान् शंकर ने कह दिया ‘तथास्तु!’ इसके बाद उनकी आज्ञा से विपक्षियों के नगर जीतने वाले मय दानव ने लोहे का सौभ नामक विमान बनाया आर शाल्व को दे दिया । वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकड़ना अत्यन्त कठिन था। चलाने वाला उसे जहाँ ले जाना चाहता वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्व ने वह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवों द्वारा किये हुए वैर को स्मरण रखता था ।

परीक्षित्! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेना से द्वारका को चारों ओर से घेर लिया और फिर उसके फल-फूल से लदे उपवन और उद्यानों को उजाड़ने और नगर द्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनोद के स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमान से शस्त्रों की झड़ी लग गयी । बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोर का बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी । परीक्षित्! प्राचीन काल में जैसे त्रिपुरासुर ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा था, वैसे ही शाल्व के विमान ने द्वारकापुरी को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वहाँ के नर-नारियों को कहीं एक क्षण के लिये भी शान्ति न मिलती थी ।

परमयशस्वी वीर भगवान् प्रद्दुम्न ने देखा—हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि ‘डरो मत’ । उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद्, श्रीशुकदेवजी कहते हैं—, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। वे सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षा के लिये बहुत-से रथ, हाथी, घोड़े, तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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