श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 12-22
दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वाध)
भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान् की इस रसमयी लीला में तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घास के लालच से घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गये । जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तों के भय को भगा देने वाले श्रीभगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘मेरे प्यारे मित्रों! तुम लोग भोजन करना बंद मत करो। मैं बछड़ों को लिये आता हूँ’। ग्वालबालों से इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण हाथ में दही-भात का कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानों में अपने तथा साथियों के बछड़ों को ढूंढने चल दिये । परीक्षित्! ब्रम्हाजी पहले से ही आकश में उपस्थित थे। प्रभु के प्रभाव से अघासुर का मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोंचा कि लीला से मनुष्य-बालक बने हुए भगवान् श्रीकृष्ण कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ों को और भगवान् श्रीकृष्ण के चले जाने पर ग्वाल-बालों को भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमल की ही तो सन्तान हैं । भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलने पर यमुनाजी पुलिन पर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं। तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा । परन्तु जब वे ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरन्त जन गये कि यह सब ब्रम्हा की करतूत है। वे तो सारे विश्व के एकमात्र ज्ञाता हैं । अब भगवान् श्रीकृष्ण ने बछड़ों और ग्वालबालों की माताओं को तथा ब्रम्हाजी को भी आनन्दित करने के लिए अपने-आप को ही बछड़ों और ग्वालबालों—दोनों के रूप में बना लिया। क्योंकि वे ही सम्पूर्ण विश्व के कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं । परीक्षित्! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वाभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी । सर्वात्मा भगवान् स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरुप बछड़ों को अपने आत्मस्वरुप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने व्रज में प्रवेश किया । परीक्षित्! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूप में उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गये ।
ग्वालबालों की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रम्ह श्रीकृष्ण को अपने बच्चे समझकर हाथों से उठाकर उन्होंने जोर से ह्रदय से लगा लिया। वे अपने स्तनों से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण सुधा से भी मधुर और आसव से भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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