श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 89 श्लोक 58-66
दशम स्कन्ध: एकोननवतितमोऽध्यायः(89) (उत्तरार्ध)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ही स्वरुप श्रीअनन्त भगवान् को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शन से कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्ण के बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ब्रम्हादि लोकपालों के स्वामी भूमा पुरुष ने मुसकुराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणी से कहा—
‘श्रीकृष्ण और अर्जुन! मैंने तुम दोनों को देखने के लिये ही ब्राम्हण के बालक अपने पास मंगा लिये थे। तुम दोनों ने धर्म की रक्षा के लिये मेरी कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वी के भाररूप दैत्यों का संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुम लोग फिर मेरे पास लौट आओ ।
तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत् की स्थिति और लोकसंग्रह के लिये धर्म का आचरण करो’।
जब भगवान् भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को इस प्रकार आदेश दिया, तब उन दोनों ने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्द के साथ ब्राम्हण-बालकों को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसी से वैसे ही द्वारका लौट आये। ब्राम्हण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उनके पिता को सौंप दिया ।
भगवान् विष्णु के उस परमधाम को देखकर अर्जुन के आश्चर्य सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान् श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है । परीक्षित्! भगवान् ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरता से परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगों के समान सांसारिक विषयों का भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओं के समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने आदर्श महापुरुषों का-सा आचरण करते हुए ब्राम्हण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजा के लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ।
उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओं को स्वयं मार डाला और बहुतों को अर्जुन आदि के द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वी में धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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