श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 54 श्लोक 54-60
दशम स्कन्ध: चतुःपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (54) (उत्तरार्धः)
हे राजन्! उस समय द्वारका पुरी के घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँ के सही लोगों का यदुपति श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम जो था । वहाँ के सभी नर-नारी मणियों के चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्द से भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहले दूल्हा और दुलहिन को अनेकों भेंट की सामग्रियाँ उपहार दीं । उस समय द्वारका की अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी-बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचे तक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नों के तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वार पर दूब, खील आदि मंगल की वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जल भरे कलश, अरगजा और धूप की सुगन्ध तथा दीपावली से बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी । मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियों के मद से द्वारका की सड़क और गलियों का छिड़काव हो गया था। प्रत्येक दरवाजे पर केलों के खंभे और सुपारी के पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे । उस उत्सव में कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धु-वर्गों में कुरु, सृज्चय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशों के लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे । जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरण की गाथा गयी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राज कन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं । महाराज! भगवती लक्ष्मीजी को रुक्मिणी के रूप में साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियों को परम आनन्द हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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