महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 162 श्लोक 17-26
द्विषष्टयधिकशततम (162) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
विषयों की आसक्ति का जो त्याग है, वही वास्तविक त्याग है। राग–द्वेष से रहित होने पर ही त्याग की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं (परमात्मचिन्तन नाम ही ‘ध्यान’ है)। जो मनुष्य अपने को प्रकट न करके प्रयत्नपूर्वक प्राणियों की भलाई का काम करता रहता है, उसके उस श्रेष्ठ भाव और आचरण का नाम ही ‘आर्यता’ है। यह आसक्ति के त्याग से प्राप्त होता है। सुख या दु:ख प्राप्त होने पर मन में विकार न होना ‘धृति’ है। जो अपनी उन्नति चाहता हो, उस बुद्धिमान् पुरूष को सदा ही ‘धृति’ का सेवन करना चाहिये। मनुष्य को सदा क्षमाशील होना तथा सत्य में तत्पर रहना चाहिये। जिसने हर्ष, भय और क्रोध तीनों को त्याग दिया है, उस विद्वान पुरूष को ही ‘धैर्य’ की प्राप्ति होती है। मन, वाणी और क्रिया द्वारा सभी प्राणियों के साथ कभी द्रोह न करना तथा दया और दान- यह श्रेष्ठ पुरूषों का सनातन धर्म है। ये पृथक–पृथक तेरह रूपों में बताये हुए धर्म एकमात्र सत्य को ही लक्षित कराने वाले है। ये सत्य का ही आश्रय लेते और उसी की वृद्धि एवं पुष्टि करते है। पृथ्वीनाथ! सत्य के गुणों की सीमा नहीं बतायी जा सकती। इसीलिये पितर और देवताओं के सहित ब्राह्मण सत्य की प्रशंसा करते हैं। सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठ से बढ़कर कोई पातक नहीं है। सत्य ही धर्म की आधारशिला है; अत: सत्य का लोप न करे । दान का, दक्षिणओंसहित यज्ञ का, त्रिविध अग्नियों में हवन का, वेदों के स्वाध्याय का तथा अन्य जो धर्म का निर्णय करने वाले शास्त्र हैं, उनके भी अध्ययन का फल मनुष्य सत्य से प्राप्त कर लेता है। यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञों को और दूसरी ओर एकमात्र सत्य को तराजू पर रखा जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्य का ही पलड़ा भारी होगा।
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