महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 56-71
द्वात्रिंश (32) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
वास्तव में क्षत्रिय धर्म बड़ा ही क्रूर, किसी की भी अपेक्षा न रखने वाला तथा अत्यन्त निर्दय है; अन्यथा तुम सब लोग धर्मज्ञ, शूरवीर तथा युद्ध में शरीर का विसर्जन करने को उद्यत रहने वाले होकर भी उस असहाय अवस्था में अभिमन्यु का वध कैसे कर सकते थे ? न्यायपूर्वक युद्ध करने वाले वीरों के लिये परम उत्तम इन्द्र लोक की प्राप्ति बतलायी गयी है। ‘बहुत से योद्धा मिल कर किसी एक वीर को न मारें’ यदि यही धर्म है तो तुम्हारी सम्मति से अनेक महारथियों ने अभिमन्यु का वध कैसे किया ? प्रायः सभी प्राणी जब स्वयं संकट में पड़ जाते हैं तो अपनी रक्षा के लिये धर्मशास्त्र की दुहाई दने लगते हैं और जब अपने उच्च पद पर प्रतिष्ठित होते हैं, उस समय उन्हें परलोक का दरवाजा बंद दिखायी देता है । वीर भीरतनन्दन ! तुम कवच धारण कर लो, अपने केशों को अच्छी तरह बांध लो तथा युद्ध की और कोई आवश्यक सामग्री जो तुम्हारे पास न हो, उसे भी ले लो । वीर ! मैं पुनः तुम्हें एक अभीष्ट वर देता हूं-‘पाचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, उस एक का ही वध कर देने पर तुम राजा हो सकते हो अथवा यदि स्वयं मारे गये तो स्वर्ग लोक प्राप्त कर लोगे। शूरवीर ! बताओ, युद्ध में जीवन की रक्षा के सिवा तुम्हारा और कौन सा प्रिय कार्य हम कर सकते हैं ? संजय कहते हैं-राजन् ! तदन्नतर आपके पुत्र ने सुवर्णमय कवच तथा स्वर्णजटित विचित्र शिर स्त्राण धारण किया । महाराज ! शिर स्त्राण बांध कर सुन्दर सुवर्णमय कवच धारण करके आप का पुत्र स्वर्णमय गिरिराज मेरु के समान शोभा पाने लगा । नरेश्वर ! युद्ध के मुहाने पर सुसज्जित हो कवच बांधे और गदा हाथ में लिये आपके पुत्र दुर्योधन ने सतस्त पाण्डवों से कहा- ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे भाइयों में से कोई एक मेरे साथ गदा द्वारा युद्ध करे। मैं सहदेव, नकुल, भीमसेन, अर्जुन अथवा स्वयं तुम से भी युद्ध कर सकता हूं । ‘रणक्षेत्र में पहुंच कर मैं तुम में से किसी एक के साथ युद्ध करूंगा और मेरा विश्वास है कि समरागंण में विजय पाऊंगा। पुरुष सिंह ! आज मैं सुवर्णपत्र जटित गदा के द्वारा वैर के उस पार पहुंच जाऊंगा, जहां जाना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है । ‘ मैं इस बात को सदा याद रखता हूं कि ‘गदा युद्ध में मेरी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है।’ गदा के द्वारा सामने आने पर मैं तुम सभी लोगों को मार डालूंगा । ‘तुम सभी लोग अथवा तुम में से कोई भी मेरे साथ न्यायपूर्वक युद्ध करने में समर्थ नहीं हो। मुझे स्वयं ही अपने विषय में इस प्रकार गर्व से उद्धत वचन नहीं कहना चाहिये, तथापि कहना पड़ा है अथवा कहने की क्या आवश्यकता ? मैं तुम्हारे सामने ही यह सब सफल कर दिखाऊंगा । ‘मेरा वचन सत्य है या मिथ्या, यह इसी मुहूर्त में स्पष्ट हो जायगा। आज मेरे साथ जो भी युद्ध करने को उद्यत हो, वह गदा उठावे’ ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में युधिष्ठिर और दुर्योधन का संवाद विषयक बत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।। ३२।।
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