महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 25

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 25 का हिन्दी अनुवाद

मधुसूदन! इस लोक में माता का आदेश सुनने के पात्र केवल तुम्हीं हो। अत: महाभाग नरेश्वर! तुम भौमासुर को मार डालो। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब महाबाहु जनार्दन अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘देवराज! मैं भूमिपुत्र नरकासुर को पराजित करके माताजी के कुण्उल अवश्य ला दूँगा’। ऐसा कहकर भगवान गोविन्द ने बलरामजी से बातचीत की। तत्पश्चात प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अनुपम बलवान् साम्ब से भी इसके विषय में वार्तापाल करके महायशस्वी इन्द्रियाधीश्वर भगवान श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा और खंग धारण कर गरुड़पर आरूढ़ हो देवताओं का हित करने की इच्छा से वहाँ से चल दिये। शत्रुनाशन भगवान श्रीकृष्ण को प्रस्थान करते देख इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता बड़े प्रसन्न हुए और अच्युत भगवान कृष्ण की स्तुति करते हुए उन्हीं के पीछे-पीछे चले। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के उन मुख्य-मुख्य राक्षसों को मारकर मुद दैत्य के बनाये हुए छ: हजार पाशों को देखा, जिनके किनारों के भागों में छुरे लगे हुए थे। भगवान ने अपने अस्त्र (चक्र) से मुद दैत्य के पाशों को काटकर मुर नामक असुर को उसके वंशजों सहित मार डाला ओर शिलाओं के समूहों को लाँघकर निशुम्भ को भी मार गिराया। तत्पश्चात जो अकेला ही सहस्त्रों योद्धाओं के समान था और सम्पूर्ण देवताओंं के साथ अकेला ही युद्ध कर सकता था, उस महाबली एवं महापराक्रमी हयग्रीव को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण यादवों को आनन्दित करने वाले अमित तेजस्वी दुर्धर्ष वीर भगवान देवकीनन्दन ने औदका के अन्तर्गत लोहित गंगा के बीच विरूपाक्ष को तथा ‘पंचजन’ नाम से प्रसिद्ध नरकासुर के पांच भयंकर राक्षसों को भी मार गिराया। फिर भगवान अपनी शोभा से उद्दीप्त से दिखायी देने वाले प्राग्ज्येातिषपुर में जा पहुंँचे। वहाँ उनका दानवों से फिर युद्ध छिड़ गया। भरत कुलभूषण! वह युद्ध महान् देवासुर संग्राम के रूप में परिणत हो गया। उसके समान लोकविस्मयकारी युुद्ध दूसरा कोई नहीं हो सकता। चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण से भिड़कर सभी दानव वहाँ चक्र से छिन्न-भिन्न एवं शक्ति तथा खड्ग से आहत होकर धराशायी हो गये। परंतप युधिष्ठिर! इसप्रकार आठ लाख दानवों का संहार करके पुरुषसिंह पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पाताल गुफा में गये, जहाँ देव समुदाय को आतंकित करने वाला नरकासुर रहता था। अत्यन्त तेजस्वी भगवान मधुसूदन ने मधु की भाँति पराक्रमी नरकासुर से युद्ध प्रारम्भ किया। भारत! देवमाता अदिति के कुण्डलों के लिये भूमिपुत्र महाकाय नरकासुर के साथ छिड़ा वह युद्ध बड़ा भयंकर था। बलावान् मधुसूदन ने चक्र हाथ में लिये हुए नरकासुर के साथ दो घड़ी तक खिलवाड़ करके बलपूर्वक चक्र से उसके मस्तक को काट डाला। चक्र से छिन्न-भिन्न होकर घायल हुए शरीर वाले नरका-सुर का मस्तक वज्र के मारे हुए वृत्रासुर के सिरकी भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। भूमि ने अपने पुत्र को रणभूमि में गिरा देख अदिति के दोनों कुण्डल लौटा दिये और महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा। भूमि बोली- प्राभो मधुसूदन! आपने ही इसे जनम दिया था और आपने ही इसे मारा है। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी ही लीला करते हुए नरकासुर की संतान का पालन कीजिये। श्रीभगवान ने कहा- भामिनि! तुम्हारा यह पुत्र देवताओं, मुनियों, पितरों, महात्माओं तथा सम्पूर्ण भूतों के उद्वेग का पात्र हो रहा था। यह पुरुषाधम ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला, देवताओं का शत्रु तथा सम्पूर्ण विश्व का कण्टक था, इसलिये सब लोग इससे द्वेष रखते थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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