महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 35-46
एकोनत्रिंश (29) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
सूत! इस राज्य भाग की प्राप्ति के लिये युद्ध करते हुए हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी हमारे लिये स्पृहणीय ही है। बाप-दादों का राज्य पराये राज्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है। संजय! तुम राजाओं की मण्डली में राजाओं के इन प्राचीन धर्मों का कौरवों के समक्ष वर्णन करना। दुर्योधन ने जिन्हें युद्ध के लिये बुलवाया है, वे मूर्ख राजा बल के मद से मोहित होकर मौत के फंदे में फंस गये हैं। संजय! भरी सभा में कौरवों ने जो यह अत्यन्त पापपूर्ण कर्म किया था, उनके इस दुराचारपर दृष्टि डालो। पाण्डवों की प्यारी पत्नी यशस्विनी द्रौपदी जो शील और सदाचार से सम्पन्न है, रजस्वला-अवस्था में सभा के भीतर लायी जा रही थी, परंतु भीष्म आदि प्रधान कौरवों ने भी उसकी ओर से उपेक्षा दिखायी। यदि बालक से लेकर बूढ़े तक सभी कौरव उस समय दु:शासन को रोक देते तो राजा धृतराष्ट मेरा अत्यंत प्रिय कार्य करते तथा उनके पुत्रों का भी प्रिय मनोरथ सिद्ध हो जाता। दु:शासन मर्यादा विपरीत द्रौपदी को सभा के भीतर श्र्वशुरजनों के समक्ष घसीट ले गया। द्रौपदी ने वहां जाकर कातर-भाव से चारों ओर करूणदृष्टि डाली, परंतु उसने वहां विदुरजी के सिवा और किसी को अपना रक्षक नहीं पाया।
उस समय सभा में बहुत-से भूपाल एकत्रित थे, परंतु अपनी कायरता के कारण वे उस अन्याय का प्रतिवाद न कर सके। एकमात्र विदुरजीने अपना धर्म समझकर मन्दबुद्धि दुर्योधन से घर्मानुकूल वचन कहकर उसके अन्याय का विरोध किया। संजय! द्यूतसभा में जो अन्याय हुआ था, उसे भुलाकर तुम पाण्डुनंदन युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश देना चाहते हो। द्रौपदीने उस दिन सभा में जाकर अत्यंत दुष्कर और पवित्र कार्य किया कि उसने पाण्डवों तथा अपने को महान् संकट से बचा लिया; ठीक उसी तरह,जैसे नौका समुद्र की अगाघ जलराशि में डूबने से बचा लेती है। उस सभा में कृष्णा श्र्वशुरजनों के समीप खड़ी थी, तो भी सूतपुत्र कर्ण ने उसे अपमानित करते हुए कहा-‘याज्ञर्सोन! अब तेरे लिये दूसरी गति नहीं है, तू दासी बनकर दूर्योधन के महल में चली जा। पाण्डव जूए में अपने को हार चूके हैं, अत: अब वे तेरे पति नहीं रहे। भाविनि! अब तू किसी दूसरे को अपना पति वरण कर ले’। कर्ण के मुख से निकला हुआ वह अत्यंत घोर कटुवचन-रूपी बाण मर्मपर चोट पहुंचानेवाला था। वह कान के रास्ते से भीतर जाकर हड्डियों को छेदता हुआ अर्जुन के हृदय में घंस गया। तीखी कसक पैदा करने वाला वह वाग्बाण आज भी अर्जुन के हृदय में गड़ा है (और इनके कलेजे को साल रहा है)। जिस समय पाण्डव वन में जाने के लिये कृष्णमृगचर्म धारण करना चाहते थे, उस समय दु:शासन ने उनके प्रति कितनी ही कड़वी बातें कहीं-‘ये सब-के-सब हीजड़े अब नष्ट हो गये, चिरकाल के लिये नरक के गर्त में गिर गये’। गान्धारराज शकुनिने द्यूतक्रीड़ा के समय कुंतीनंदन युधिष्ठिर से शठतापूर्वक यह बात कही थी कि अब तो तुम अपने छोटे भाई को भी हार गये, अब तुम्हारे पास क्या है? इसलिये इस समय तुम द्रुपदनन्दिनी कृष्णा को दांव पर रखकर जूआ खेलो।
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