महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 21-31
षट्चत्वारिंश (46) अधयाय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
जैसे सांप बिलों का आश्रय ले अपने को छिपाये रहते हैं, उसी प्रकार दम्भी मनुष्य अपनी शिक्षा और व्यवहार की आड़में अपने दोषों को छिपाये रखते हैं। जैसे ठग रास्ता चलनेवालों को भयमें डालनेके लिये दूसरा रास्ता बतलाकर मोहित कर देते हैं, मूर्ख मनुष्य उनपर विश्र्वास करके अत्यंत मोह में पड़ जाते हैं; इस प्रकार जो परमात्मा मार्ग में चलने-वाले हैं, उन्हें भी दम्भी पुरूष भय में डालने के लिये मोहित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु योगीजन भगवत्कृपा से उनके फंदे में न आकर उस सनातन परमात्माका ही साक्षात्कार करते हैं। राजन्! मैं कभी किसी के असत्कार का पात्र नहीं होता। न मेरी मूत्यु होती है न जन्म, फिर मोक्ष किसका और कैसे हो (क्योकि मैं नित्यमुक्त ब्रह्म हूं) । सत्य और असत्य सब कुछ मुझ सनातन समब्रह्म में स्थित हैं। एकमात्र मैं ही सत् और असत् की उत्पति का स्थान हूं। मेरे स्वरूपभूत उस सनातन परमात्मा का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। परमात्माका न तो साधुकर्मसे संबंध है ओर न असाधु कर्मसे। यह विषमता तो देहाभिमानी मनुष्यों में ही देखी जाती है। ब्रह्मका स्वरूप सर्वत्र समान ही समझना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानयोग से युक्त होकर आनन्दमय ब्रह्म को ही पाने की इच्छा करना चाहिये। उस सनातन परमात्मका योगीलोग साक्षात्कार करते हैं। इस ब्रह्मवेत्ता पुरूष के हृदयको निंदा के वाक्य संतप्त नहीं करते। ‘मैंने स्वाध्याय नहीं किया, अग्निहोत्र नहीं किया’ इत्यादि बातें भी उसके मन में तुच्छ भाव नहीं उत्पन्न करतीं। ब्रह्मविद्या शीघ्र ही उसे वह स्थिरबुद्धि प्रदान करती है, जिसे धीर पुरूष ही प्राप्त करते हैं। उस सनातन परमात्म का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। इस प्रकार जो समस्त भूतों में परमात्म को निंरतर देखता है, वह ऐसी दृष्टिप्राप्त होने के अनंतर अनयान्य विषय-भोगों से आसक्त मनुष्यों के लिये क्या शोक करे? जैसेसब ओर जल से परिपूर्ण बड़े जलाशय के प्राप्त होनेपर जल के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मज्ञानी के लिये सम्पूर्ण वेदों में कुछ भी प्राप्त करने योग्य शेष नहीं रह जाता। यह अङ्गष्ठमात्र अंतर्यामी परमात्मा सबके हृदय के भीतर स्थित है, किंतु सबको दिखायी नहीं देता। वह अजन्मा, चराचरस्वरूप ओर दिन-रात सावधान रहनेवाला है। जो उसे जान लेता है, वह ज्ञानी परमानंद में निमग्न हो जाता है। धृतराष्ट्र! मैं ही सबकी माता और पिता माना गया हूं, मैं ही पुत्र हूं और सबका आत्मा भी मैं ही हूं। जो है, वह भी और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूं। भारत! मैं ही तुम्हारा बूढ़ा पितामह, पिता और पुत्र भी हूं। तुम सब लोग मेरी ही आत्मा में स्थित हो, फिर भी (वास्तव में) न तुम हमारे हो और न हम तुम्हारे हैं। आत्मा ही मेरा स्थान है और आत्मा ही मेरा जन्म (उद्गम) है। मैं सब में ओतप्रोत और अपनी अजर (नित्य-नूतन) महिमा में स्थित हूं। मैं अजन्मा, चराचरस्वरूप तथा दिन-रात सावधान रहनेवाला हूं। मुझे जानकर ज्ञानी पुरूष परम प्रसन्न हो जाता है।।३०।। परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा विशुद्ध मनवाला है। वही सब भूतों में अंतर्यामीरूप से प्रकाशित है। सम्पूर्ण प्राणियों-के हृदयकमलमें स्थित उस परमपिताको ज्ञानी पुरूष ही जानते है।
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