महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 27-60

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षष्टितमोअध्यायः (60) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षष्टितमोअध्यायःअध्याय: श्लोक 27-60 का हिन्दी अनुवाद

धर्मात्मा राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मार कर पाण्डुपुत्र भीमसेन इस संसार में कपटपर्ण युद्ध करने वाले योद्धा के रूप में विख्यात होंगे । धृतराष्ट्र पुत्र धर्मात्मा राजा दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में मारा गया है; अतः वह सनातन सद्गति को प्राप्त होगा । युद्ध की दीक्षा ले संग्रामभूमि में प्रविष्ट हो रणयज्ञ का विस्‍तार करके शत्रुरूपी प्रज्वलित अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दुर्योधन ने सुयशरूपी अवभृथ-स्नान का शुभ अवसर प्राप्त किया है । यह कहकर प्रतापी रोहिणीनन्दन बलरामजी, जो श्वेत बादलों के अग्रभाग की भांति गौर-क्रान्ति से सुशोभित हो रहे थे, रथ पर आरूढ हो द्वारका की ओर चल दिये । प्रजानाथ ! बलरामजी के इस प्रकार द्वारका चले जाने पर पांचाल, वृष्णिवंशी तथा पाण्डव वीर उदास हो गये। उनके मन में अधिक उत्साह नहीं रह गया । उस समय युधिष्ठिर बहुत दुखी थे। वे नीचे मुख किये चिन्ता में डूब गये थे। शोक से उनका मनोरथ भंग हो गया था। उस अवस्था में उनसे भगवान श्रीकृष्ण बोले । श्रीकृष्ण ने पूछा- धर्मराज! आप चुप होकर अधर्म का अनुमोदन क्यों कर रहे हैं ? नरेश्वर दुर्योधन के भाई और सहायक मारे जा चुके हैं। यह पृथ्वी पर गिरकर अचेत हो रहा है। ऐसी दशा में भीमसेन इसके मस्तक को पैर से कुचल रहे हैं। आप धर्मज्ञ होकर समीप से ही यह सब कैसे देख रहे हैं। युधिष्ठिर ने कहा-श्रीकृष्ण ! भीमसेन ने क्रोध में भरकर जो राजा दुर्योधन के मस्तक को पैरों से इुकराया है, यह मुझे भी अच्छा नहीं लगा। अपने कुलका संहार हो जाने से मैं प्रसन्न नहीं हूं। वृष्णिनन्दन! भीमसेन के हृदय में इन सब बातों के लिये बत्रा दुःख था। यही सोचकर मैंने उनके इस कार्य की उपेक्षा की है । इसलिये मैंने विचार किया कि काम के वशीभूत हुए लोभी और अजितात्मा दुर्योधन को मारकर धर्म या अधर्म करके पाण्डुपुत्र भी अपनी इच्छा पूरी कर लें । संजय कहते हैं - राजन ! धर्मराज के ऐसा कहने पर यदुकुलश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े कष्‍ट से यह कहा कि अच्छा, ऐसा ही सही। भीमसेन का प्रिय और हित चाहने वाले भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने भीमसेन के द्वारा युद्धस्थल में जो कुछ किया गया था, उस सबका अनुमोदन किया । महाबाहु अर्जुन भी अप्रसन्न-चित्त से अपने भाई के प्रति भला बुरा कुछ नहीं बोले।। अमर्षशील भीमसेन युद्धस्थल में आपके पुत्र का वध करके बड़े प्रसन्न हुए और युधिष्ठिर को प्रणाम करके उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये । प्रजानाथ ! उस समय महातेजस्वी भीमसेन विजयश्री से प्रकाशित हो रहे थे। उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- । महाराज ! आज यह सारी पृथ्वी आपकी हो गयी, इसके कांटे नष्ट कर दिये गये, अतः यह मंगलमयी हो गयी है। आप इसका शासन तथा अपने धर्म का पालन कीजिये । पृथ्वीनाथ ! जिसे छल और कपट ही प्रिय था तथा जिसने कपट से ही इस बैर की नींव उाली थी, वही यह दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वी पर सो रहा है । वे भयंकर कटुवचन बोलने वाले दुःशासन आदि धृतराष्ट्रपुत्र तथा कर्ण और शकुनि आदि आपके सभी शत्रु मार डाले गये । महाराज! आपके शत्रु नष्ट हो गये। आज यह रत्नों से भरी हुई वन और पर्वतों सहित सारी पृथ्वी आपकी सेवा में प्रस्तुत है । युधिष्ठिर बोले- भीमसेन ! सौभाग्य की बात है कि तुमने बैर का अन्त कर दिया; राजा दुर्योधन मारा गया और श्रीकृष्ण के मत का आरय लेकर हमने यह सारी पृथ्वी जीत ली । सौभाग्य से तुम माता तथा क्रोध दोनों के ऋण से उऋण हो गये। दुर्घर्ष वीर ! भाग्यवश तुम विजयी हुए और सौभाग्य से ही तुमने अपने शत्रु को मार गिराया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व में श्रीकृष्ण का बलदेवजी को सान्‍त्‍वना देना विषयक साठवां अघ्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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