महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 72 श्लोक 53-69

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द्विसप्‍ततितम (72) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञापर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:द्विसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद


उन क्रूरकर्मा महान्‍ धनर्धरों ने श्रीकृष्‍ण के भानजे और मेरे बालक पुत्र पर मर्मभेदी बाणों का प्रहार कैसे किया ? ।‘जब मैं शत्रुओं को मारकर शिबिर को लौटता था, उस समय जो प्रतिदिन प्रसन्‍नचित्‍त हो आगे बढकर मेरा अभिनन्‍दन करता था, वह अभिमन्‍यु आज मुझे क्‍यों नहीं देख रहा है ? । ‘निश्‍चय ही शत्रुओं ने उसे मार गिराया है और वह खून से लथपथ होकर धरती पर पडा सो रहा है एवं आकाश से नीचे गिराये हुए सूर्य की भांति वह अपने अंगों से इस भूमि की शोभा बढा रहा है । ‘मुझे बारंबार सुभद्रा के लिये शोक हो रहा है, जो युद्ध से मुंह न मोडने वाले अपने वीर पुत्र को रणभूमि में मारा गया सुनकर शोक से आतुर हो प्राण त्‍याग देगी । ‘अभिमन्‍यु को न देखकर सुभद्रा मुझे क्‍या कहेगी ? द्रौपदी भी मुझसे किस प्रकार वार्तालाप करेगी, इन दोनों दु:ख कातर देवियों को मैं क्‍या जवाब दूँगा ? । ‘निश्‍चय ही मेरा हृदय वज्रमार का बना हुआ है, जो शोकर से कातर हुई बहू उत्‍तरा को रोती देखकर सहस्‍त्रों टुकडों में विदीर्ण नहीं हो जाता । मैंने घमंड में भरे हुए धृतराष्‍ट्र पुत्रों का सिंहनाद सुना है और श्रीकृष्‍ण ने यह भी सुना है कि युयुत्‍सु उन कौरव वीरों को इस प्रकार उपालम्‍भ दे रहा था।‘युयुत्‍सु कह रहा था , धर्म को न जानने वाले महारथी कौरवो ! अर्जुन पर जब तुम्‍हारा वश न चला, तब तुम एक बालक की हत्‍या करके क्‍यों आनन्‍द मना रहे हो ? कल पाण्‍डवों का बल देखना । ‘रणक्षेत्र में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का अपराध करके तुम्‍हारे लिये शोक का अवसर उपस्थित है, ऐसे समय में तुम लोग प्रसन्‍न होकर सिंहनाद कैसे कर रहे हो ? । ‘तुम्‍हारे पापकर्म का फल तुम्‍हें शीघ्र ही प्राप्‍त होगा । तुम लोगों ने घोर पाप किया है । उसका फल मिलने में अधिक विलम्‍ब कैसे हो सकता है ।‘राजा धृतराष्‍ट्र की वैश्‍यजातीय पत्‍नी का परम बुद्धिमान्‍ पुत्र युयुत्‍सु कोप और दु:ख से युक्‍त हो कौरवों से उपर्युक्‍त बातें कहकर शस्‍त्र त्‍यागकर चला आया है । ‘श्रीकृष्‍ण ! आपने रणक्षेत्र में ही यह बात मुझसे क्‍यों नहीं बता दी ? मैं उसी समय उन समस्‍त क्रूर महारथियों को जलाकर भस्‍म कर डालता’ । संजय कहते हैं – महाराज ! इस प्रकार अर्जुन को पुत्र शोक से पीडित और उसी का चिन्‍तन करते हुए नेत्रों से आंसू बहाते देख भगवान्‍ श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें पकडकर संभाला । वे पुत्र वियोग के कारण होने वाली गहरी मनोव्‍यथा में डूबे हुए थे और तीव्र शोक संतप्‍त कर रहा था । भगवान बोले – ‘मित्र ! ऐसे व्‍याकुल न होओ । ‘युद्ध में पीठ न दिखाने वाले सभी शूरवीरों का यही मार्ग है । विशेषत: उन क्षत्रियों को, जिनकी युद्ध से जीविका चलती है, इस मार्ग से जाना ही पडता है । ‘बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ वीर ! जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं, उन युद्धपरायण शूरवीरों के लिये सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों ने यही गति निश्चित की है । ‘पीछे पैर न हटाने वाले शूरवीरों का युद्ध में मरण अवश्‍यम्‍भावी है । अभिमन्‍यु पुण्‍यात्‍मा पुरुषों के लोक में गया है, इसमें संशय नहीं है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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