भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 126

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:२५, २४ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-4<br /> ज्ञानमार्ग ज्ञा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
अर्जुन उवाच
4.अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।
अर्जुन ने कहाः तेरा जन्म बाद में हुआ और विवस्वान् का जन्म पहले हुआ था। तब मैं कैसे समझूं कि तूने शुरू में यह योग उसको बताया था? बुद्ध का दावा था कि वह बीते हुए, युगों में असंख्य बोधिसत्वों का गुरु रह चुका था। सद्धर्मपुण्डरीक, 15,11 ईसा ने कहा था: ’’जब अब्राहम हुआ था, उससे पहले से मैं हूं।’’ - जान, 8,58 अवतारों का सिद्धान्त

श्रीभगवानुवाच
5.बहूनिमे व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
श्री भगवान् ने कहाः हे अर्जुन, मेरे और तेरे भी बहुत-से जन्म पहले हो चुके हैं। हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), मैं उन सबको जानता हूँ, पर तू नहीं जानता ।
 
6.अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानीमीश्वरोअपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यत्ममायया ।।
यद्यपि मैं अजन्मा हूँ और मेरी आत्मा अनश्वर है, यद्यपि मैं सब प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी मैं अपनी प्रकृति में स्थिर होकर अपनी माया द्वारा (अनुभवगम्य) अस्तित्व धारण करता हूँ।
मानव-प्राणियों का देह-धारण स्वैच्छिक नहीं है। अज्ञान के कारण अपनी प्रकृति से पे्रेरित होकर वे बारम्बार जन्म लेते हैं। भगवान् प्रकृति का नियन्त्रण करता है और अपनी स्वतन्त्र इच्छा द्वारा शरीर धारण करता है। प्राणियों के सामान्य जन्म का निर्धारण प्रकृति की शक्तियों द्वारा होता है, अवशं प्रकृतेर्वशात्,[१] जब कि परमात्मा स्वयं अपनी शक्ति द्वारा जन्म लेता है, आत्ममायया। प्रकृतिम् अधिष्ठायः मेरी अपनी प्रकृति में स्थितर होकर। वह अपनी प्रकृति का एक ऐसे ढंग से प्रयोग करता है, जो कर्म की पराधीनता से स्वतन्त्र है।[२]यहां ऐसी कोई ध्वनि नहीं है कि उस एक का अस्तित्वमान् होना केवल प्रतीति-भर है। यहाँ उसका अभिप्राय वास्तविक रूप से ही है। यह माया द्वारा
वस्तुतः अस्तित्वमान् होना है ’असम्भव को वास्तविक बना देने की क्षमता’ ।शंकराचार्य की यह व्याख्या कि ’’मैं अपनी शक्ति द्वारा जन्म लेता हुआ और शरीर धारण करता हुआ प्रतीत होता हूँ, परन्तु अन्य लोगों की भाँति वस्तुतः जन्म नहीं लेता,’’ [३]सन्तोषजनक नहीं है। योगमाया से संकेत परमात्मा की स्वतन्त्र इच्छा, उसकी स्वेच्छा, उसकी अगम्य शक्ति की ओर है। पूर्णता द्वारा अपूर्णता का, गौरव द्वारा क्षुद्रता का, शक्ति द्वारा दुर्बलता का धारण किया जाना विश्व का रहस्य है। तार्किक दृष्टिकोण से यह माया है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9,8
  2. कर्मपारतन्त्रयरहित। - श्रीधर
  3. .सम्भवामि देहवानिव, जात इव आत्ममायया आत्मनो मायया, न परमार्थतो लोकवत् ।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन