"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 148" के अवतरणों में अंतर

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‘ दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म - ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मो का, शब्दों के सामान्य - से पर महत्वपूर्ण फेरफार के साथ , एक - सा वर्णन करती है। “ अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं।”२  
 
‘ दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म - ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मो का, शब्दों के सामान्य - से पर महत्वपूर्ण फेरफार के साथ , एक - सा वर्णन करती है। “ अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं।”२  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर - पूरक पहलू हैं। माया यथार्थ में भ्रम नहीं है - भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मका माया से उत्पन्न होता है - भागवत चैतन्य मे सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार , उसके गुणकर्म के अनुसार जगत् - अभिनय में परिचालन करती है। भगवान् कहते हैं कि, “ मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उस पर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूं।”2 जो लोग मानव शरीर में निवास करने वाले भगवान् को नहीं जानते , वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बंधनों में अवश्य रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलने वाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है, क्योंकि अंतःस्थित भगवान् पुरूषोत्तम हर एक के सामने सहसा प्रकट नहीं होते; वे अपने - आपको किसी घने काले मेघ के अंदर या किसी चमकदार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढे़ रहते हैं, गीता बतलाती है कि “ यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इससे तरते है जो मेरी शरण में आते हैं ; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है।”१
‘ दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म - ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मो का, शब्दों के सामान्य - से पर महत्वपूर्ण फेरफार के साथ , एक - सा वर्णन करती है। “ अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं।”२


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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