"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 250" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म,...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
 
पंक्ति ६: पंक्ति ६:
  
  
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-249|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 251}}
+
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 249|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 251}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>

०७:२०, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1. दो प्रकृतियां[१]

गीता के प्रथम छः अध्यायों पर उसकी शिक्षाओं के एक कांड के रूप में विवेचना की गयी है, यह कांड गीता की साधना औार ज्ञान का प्राथमिक आधर है; शेष बारह अध्याय भी इसी प्रकार आपस में संबंधित दो कांडो के तौर पर समझे जा सकते हैं, इनमें उस पहले आधर के ऊपर ही गीता की शेष शिक्षा का विस्तार किया गया है। सातवें से बारहवें तक के अध्यायों में भगवान् के स्वरूप का व्यापक तात्विक निरूपण है और इसके आधार पर ज्ञान और भक्ति में संबंध स्थापित कर दोनों का समन्वय साधा गया है जैस कि प्रथम छः अध्यायों में कर्म और ज्ञन मे यिा गया था। ग्यारहवे अध्याय का विश्वपुरूष - दर्शन इस समन्वय को एक शक्तिशाली रूप प्रदान करता है और इसे कर्म और जीवन के साथ स्पष्ट रूप से जोड़ देता है। इस प्रकार सब चीजें फिर से एक अधिक प्रभाव के साथ अर्जुन के मूल प्रश्न पर आती हैं जिसके चारों ओर , और जिसे सुलझाने के लिये यह सब रचना है। इसके बाद गीता प्रकृति और पुरूष का भेद दिखाकर त्रिगुण के कर्म और निस्त्रैगुण्य की अवस्था के बारे में तथा निष्काम कर्मो की उस ज्ञान में परिसमाप्ति , जहां वह भक्ति के साथ एक हो जाता है, के बारे में अपने सिद्धांत स्पष्ट करती है। इस प्रकार ज्ञान, कर्म और भक्ति में एकता साधित कर गीता उस परम वचन की ओर मुड़ती है जो सर्वभूत महेश्वर के प्रति आत्मसमर्पण के संबंध में उसका गुह्मतम वचन है।
गीता के इस द्वितीय कांड की निरूपण - शैली अबतक की शैली की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त और सरल है। प्रथम छः अध्यायों में ऐसे स्पष्ट लक्षण नहीं दिये गये हैं जिनसे आधरभूत सत्य की पहचान हो ; जहां जो कठिनाइयां पेश आयी हैं वहां उनका चलते - चलाते समाधन कर दिया गया है; विवेचन का क्रम कुछ कठिन है और कितनी ही उनझनों और पुनरावृत्तियों में से होकर चलता रहा है; ऐसा बहुत कुछ है जो कथन में समाया तो है पर जिसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो पाया है। अब यहां से क्षेत्र कुछ अधिक साफ है, विवेचन अधक संक्षिप्त और अपने अभिप्राय के प्रति स्पष्ट है। परंतु इस संक्षेप के कारण ही हमें बराबर सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा जिससे कहीं कोई भूल न हो जाये, कहीं वास्तविक अभिप्राय छूट न जाये। कारण, यहां हम आतंरिक और आध्यात्मिक अनुभूति की सुरक्षित भूमि पर स्थिर होकर नहीं चल रहे हैं, बल्कि यहां हमें आध्यात्मिक और प्रायः विश्वतीत सत्य के बौद्धिक प्रतिपादन को देखना - समझना है। दार्शनिक विषय के प्रतिपादन में यह कठिनाई और अनिश्चितता सदा रहती है कि बात तो कहनी होती है निःसीम की, पर उसे बुद्धि की पकड़ में आने के लिये सीमित करके कहना होता है; यह एक ऐसा प्रयास है जो करना तो पड़ता है पर जो कभी पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं होता, यह एकदम आखिरी या पूर्ण नहीं हो सकता। परम आध्यात्मिक सत्य को जीवन में उतारा जा सकता है , उसका साक्षात्कार पाया जा सकता है , पर उसका वर्णन केवल अंशतः ही हो सकता है। उपनिषदों की पद्धति और भाषा इससे अधिक गभीर है, उसमें प्रतीक और रूपक का खुलकर उपयोग किया गया है, जो कुछ कहा गया है वह अंतज्र्ञान का ही स्वच्छंद प्रवाह है जिसमें बौद्धिक वाणी की कठोर निश्चितता का बंधन टूट गया है और शब्दों के गर्भित अर्थो में से संकेत का एक अपार तरंग - प्रवाह निकल आया है।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 07, श्लोक 1-14

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध