भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 107

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
अर्जुन उवाच-
1.ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्माणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।
हे जनार्दन (कृष्णा) यदि तू समझता है कि बुद्धि (का मार्ग) कर्म(के मार्ग) से अधिक अच्छी है, तो हे केशव (कृष्ण) तू मुझे इस भयंकर कर्म को करने के लिए क्यों कह रहा है?
अर्जुन गलती से इस उपदेश का अर्थ यह समझता है कि फल की इच्छा से किया गया काम अनासक्त और निष्काम कर्म से कम अच्छा है और वह यह समझता है कि कृष्ण का विचार यह है कि कर्मरहित ज्ञान कर्म से अधिक अच्छा है और तब पूछता है कि यदि तुम यह समझते हो कि ज्ञान कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, तब तुम मुझसे इस भयंकर कार्य को करने को क्यों कह रहे हो। यदि ज्ञान प्राप्त करने की सांख्य-पद्धति अधिक उत्कृष्ट है, तब कर्म बिलकुल असंगत बन जाता है।

2.व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोअहमाप्नुयाम् ।।
इस मिली-जुली-सी प्रतीत होने वाली उक्ति द्वारा तू मेरी बुद्धि को भ्रमित-सी कर रहा है। (मुझे) निश्चय से एक बात बता, जिसके द्वारा मैं अधिकतम कल्याण प्राप्त कर सकूं। इवः यह मिला-जुलापन या घपला केवल प्रतीत ही होता है। गुरु का इरादा अर्जुन को घपले में डालना नहीं है, परन्तु अर्जुन के मन में घपला हो जाता है। [१] जीवन कर्म है; परिणामों के प्रति निस्पृहता आवश्यकता है
 
श्रीभगवानुवाच-
3.लोकेअस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।
श्री भगवान् ने कहाः
हे अनघ (निर्दोश), इस संसार में बहुत पहले मैंने दो प्रकार की जीवन-प्रणालियों का उपदेश दिया था। चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ज्ञानमार्ग का और कर्मशील व्यक्तियों के लिए कर्ममार्ग का। यहाँ गुरु आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की भाँति साधकों के दो मुख्य प्रकारों में अन्तर बताता है। एक तो अन्तमुर्ख (इण्ट्रोवर्ट), जिनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति आत्मा के आन्तरिक जीवन को खोजने की ओर होती है और दूसरे बहिर्मुख,जिनका स्वाभाविक झुकाव बाह्य संसार में कार्य करने की ओर होती है। इनसे मिलते-जुलते हमारे यहाँ ज्ञानयोगी हैं, जिनका आन्तरिक अस्तित्व गम्भीर आध्यात्मिक चिन्तन की उड़ानों की ओर झुका हुआ है और दूसरे कर्मयोगी, जो ऐसे ऊर्जस्वी व्यक्तित्व हैं, जिन्हें कर्म से प्रेम है। परन्तु यह अन्तर आत्यन्तिक नहीं है, क्यों कि सब मनुष्य कुछ कम या अधिक मात्रा में अन्तर्मुख और बहिर्मुख दोनों ही होते हैं। गीता की दृष्टि में कर्म का मार्ग भी मुक्ति के लिए उतना ही समर्थ साधन है जितना कि ज्ञान का मार्ग; और ये दोनों मार्ग दो अलग-अलग श्रेणियों के व्यक्तियों के लिए हैं। वे ऐकान्तिक नहीं हैं, अपितु परस्परपूरक हैं। मार्ग सारा एक ही है, जिसमें अलग-अलग प्रावस्थाएं (दिशाएं या दौर) सम्मिलित हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परमकारुणिकस्य तव मोहकत्वं नास्त्येव, तथापि भ्रान्त्या ममैवं भातीतीव शब्देनोक्तम्। -श्रीधर।

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