महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 18-37

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अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद


भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर वे महर्षि उन यदुकुलरत्न देवेश्वर पुरुषोत्तम को प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके चले गये। तत्पश्चात् परम कान्ति से युक्त ये श्रीमान् नारायण अपने व्रत को यथावतरूप से पूर्ण करके पुनः द्वारकापुरी में चले आये। प्रभो! दसवाँ मास पूर्ण होने पर इन भगवान के रुक्मिणी देवी के गर्भ से एक परम अद्भुत, मनोरम एवं शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो इनका वंश चलाने वाला है। नरेश्वर! जो सम्पूर्ण प्राणियों के मानसिक संकल्प में व्याप्त रहने वाला है और देवताओं तथा असुरों के भी अन्तःकरण में सदा विचरता रहता है, वह कामदेव ही भगवान श्रीकृष्ण का वंशधर है। वे ही ये चार भुजाधारी घनश्याम पुरुषसिंह श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक तुम पाण्डवों के आश्रित हैं और तुम लोग भी इनके शरणागत हो। ये त्रिविक्रम विष्णुदेव जहाँ विद्यमान हैं, वहीं कीर्ति, लक्ष्मी, धृति तथा स्वर्ग का मार्ग है।इन्द्र आदि तैंतीस देवता इन्हीं के स्वरूप हैं, इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। ये ही सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने वाले आदिदेव महादेव हैं। इनका न आदि है न अन्त। ये अव्यक्तस्वरूप, महातेजस्वी महात्मा मधुसूदन देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये यदुकुल में उत्पन्न हुए हैं। ये माधव दुर्बोध तत्व के वक्ता और कर्ता हैं। कुन्तीनन्दन! तुम्हारी सम्पूर्ण विजय, अनुपम कीर्ति और अखिल भूमण्डल का राज्य- ये सब भगवान नारायण का आश्रय लेने से ही तुम्हें प्राप्त हुए हैं। ये अचिन्त्यस्वरूप नारायण ही तुम्हारे रक्षक और परमगति हैं। तुमने स्वयं होता बनकर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी श्रीकृष्णरूपी विशाल स्रुवा के द्वारा समराग्नि की ज्वाला में सम्पूर्ण राजाओं की आहुति दे डाली है। आज वह दुर्योधन अपने पुत्र, भाई और सम्बन्धियों सहित शोक का विषय हो गया है, क्योंकि उस मूर्ख ने क्रोध के आवेश में आकर श्रीकृष्ण और अर्जुन से युद्ध ठाना था। कितने ही विशाल शरीरवाले महाबली दैत्य और दानव दावानल में दग्ध होने वाले पतंगों की तरह श्रीकृष्ण की चक्राग्नि में स्वाहा हो चुके हैं। पुरुषसिंह! सत्व (धैर्य), शक्ति और बल आदि से स्वभावतः हीन मनुष्य युद्ध में इन श्रीकृष्ण का सामना नहीं कर सकते। अर्जुन भी योगशक्ति से सम्पन्न और युगान्तकाल की अग्नि के समान तेजस्वी हैं। ये बायें हाथ से भी बाण चलाते हैं और रणभूमि में सबसे आगे रहते हैं। नरेश्वर! इन्होंने अपने तेज से दुर्योधन की सारी सेना का संहार कर डाला है। वृषभध्वज भगवान शंकर ने हिमालय के शिखर पर मुनियों से जो पुरातन रहस्य बताया था, वह मेरे मुँह से सुनो। विभो! अर्जुन में जैसी पुष्ट है, जैसा तेज, दीप्ति, पराक्रम, प्रभाव, विनय और जन्म की उत्तमता है, वह सब कुछ श्रीकृष्ण में अर्जुन से तिगुना है। संसार में कौन ऐसा है जो मेरे इस कथन को अन्यथा सिद्ध कर सके। श्रीकृष्ण का जैसा प्रभाव है, उसे सुनो- जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हैं, वहाँ सर्वोत्तम पुष्टि विद्यमान है। हम इस जगत् में मन्दबुद्धि, परतन्त्र और व्याकुलचित्त मनुष्य हैं। हमने जान-बूझकर मृत्यु के अटल मार्ग पर पैर रखा है। युधिष्ठिर! तुम अत्यन्त सरल हो, इसी से तुमने पहले ही भगवान वासुदेव की शरण ली और अपनी प्रतिज्ञा के पालन में तत्पर रहकर राजोचित बर्ताव को तुम ग्रहण नहीं कर रहे हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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