"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 69 श्लोक 1-12" के अवतरणों में अंतर
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− | == दशम स्कन्ध: | + | == दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः(69) (उत्तरार्ध)== |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद </div> |
− | श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने सुना कि | + | श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मन में भगवान की रहन-सहन देखने की बड़ी अभिलाषा हुई । वे सोचने लगे—अहो, यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया । देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान की लीला देखने के लिये द्वारका आ पहुँचे। वान के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे, उन पर तरह-तरह के पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे । निर्मल जल से भरे सरोवरों में नीले, लाल और सफ़ेद रंग के भाँति-भाँति कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोईं) और नवजात कमलों की मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उसमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे । द्वारका पुरी में स्फटिकमणि और चाँदी के नौ लाख महल थे। वे फर्श आदि में जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभा से जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरों की बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं । उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरों के कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों, चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी । |
− | उसी द्वारकानगरी में | + | उसी द्वारकानगरी में भगवान श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करने में विश्वकर्मा ने अपना सारा कला-कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी । उस अन्तःपुर (रनिवास) में भगवान की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया । उस महल में मूँगों के खम्भे, वैदूर्य के उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणि की दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँ की गचें भी ऐसी इन्द्र-नीलमणियों से बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती । विशकर्मा ने बहुत-से ऐसे चंदोवे बना रखे थे, जिसमें मोती की लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँत के बने हुए आसन और पलँग थे, जिसमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी | बहुत-सी दासियाँ गले में सोने का हार पहने और बहुत वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काम में व्यस्त थे और महल की शोभा बढ़ा रहे थे । अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहट से उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगर की धूप देने के कारण झरोखों से धुआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जों पर बैठे हुए मोर बादलों के भ्रम से कूक-कूककर नाचने लगते। |
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+ | {{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 68 श्लोक 42-54|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 69 श्लोक 13-21}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
१२:०२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः(69) (उत्तरार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मन में भगवान की रहन-सहन देखने की बड़ी अभिलाषा हुई । वे सोचने लगे—अहो, यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया । देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान की लीला देखने के लिये द्वारका आ पहुँचे। वान के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे, उन पर तरह-तरह के पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे । निर्मल जल से भरे सरोवरों में नीले, लाल और सफ़ेद रंग के भाँति-भाँति कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोईं) और नवजात कमलों की मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उसमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे । द्वारका पुरी में स्फटिकमणि और चाँदी के नौ लाख महल थे। वे फर्श आदि में जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभा से जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरों की बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं । उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरों के कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों, चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी ।
उसी द्वारकानगरी में भगवान श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करने में विश्वकर्मा ने अपना सारा कला-कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी । उस अन्तःपुर (रनिवास) में भगवान की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया । उस महल में मूँगों के खम्भे, वैदूर्य के उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणि की दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँ की गचें भी ऐसी इन्द्र-नीलमणियों से बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती । विशकर्मा ने बहुत-से ऐसे चंदोवे बना रखे थे, जिसमें मोती की लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँत के बने हुए आसन और पलँग थे, जिसमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी | बहुत-सी दासियाँ गले में सोने का हार पहने और बहुत वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काम में व्यस्त थे और महल की शोभा बढ़ा रहे थे । अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहट से उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगर की धूप देने के कारण झरोखों से धुआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जों पर बैठे हुए मोर बादलों के भ्रम से कूक-कूककर नाचने लगते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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