अंकुश कृमि
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अंकुश कृमि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 07 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
अंकुश कृमि (अंग्रेज़ी में 'हुकवर्म') बेलनाकार छोटे-छोटे भूरे रंग के कृमि होते हैं। ये अधिकतर मनुष्य की क्षुद्र आंत्र के पहले भाग में रहते हैं। इनके मुँह के पास एक कँटिया-सा अवयव होता है; इसी कारण ये अंकुश कृमि कहलाते हैं। इनकी दो जातियाँ होती हैं, 'नेकटर अमेरिकानस' और 'एन्क्लोस्टोम डुओडिनेल'। ये दोनों ही प्रकार के कृमि सब जगह पाए जाते हैं। नाप में मादा कृमि 10 से लेकर 13 मिलीमीटर तक लंबी और लगभग 0.6 मिलीमीटर व्यास की होती है। नर थोड़ा छोटा और पतला होता है।
मानव शरीर में प्रवेश
मनुष्य के आंत्र में पड़ी मादा कृमि अंडे देती हैं, जो बिष्ठा के साथ बाहर निकलते हैं। भूमि पर बिष्ठा में पड़े हुए अंडे ढोलों (लार्वा) में परिणत हो जाते हैं, जो केंचुल बदलकर छोटे-छोटे कीड़े बन जाते हैं। किसी व्यक्ति का पेर पड़ते ही ये कीड़े उसके पैर की अंगुलियों के बीच की नरम त्वचा को या बाल के सूक्ष्म छिद्र को छेदकर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ रुधिर या लसीका की धारा में पड़कर वे हृदय, फेफड़े और वायु प्रणाली में पहुँचते हैं और फिर ग्रास नलिका तथा आमाशय में होकर अँतरियों में पहुँच जाते हैं।
रोगजनक
गंदा जल पीने अथवा संक्रमित भोजन करने से भी ये कृमि आंत्र में पहुँच जाते हैं। वहाँ पर तीन या चार सप्ताह के पश्चात् मादा अंडे देने लगती है। इस प्रकार मानव शरीर में इस कृमि की संख्या लगातार बढ़्ती रहती है और मानव शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। ये कृमि अपने अंकुश से आंत्र की भित्ति पर अटके रहते हैं और रक्त चूसकर अपना भोजन प्राप्त करतें हैं। ये कई महीने तक जीवित रह सकते हैं। परंतु साधारणत: एक व्यक्ति में बार-बार नए कृमियों का प्रवेश होता रहता है और इस प्रकार कृमियों का जीवन चक्र और व्यक्ति का रोग दोनों ही चलते रहते हैं।
रोग के लक्षण
इस रोग का विशेष लक्षण 'रक्ताल्पता', खून की कमी, (ऐनीमिया) होता है। रक्त के नाश से रोगी पीला दिखाई पड़ता है। रक्ताल्पता के कारण रोगी दुर्बल हो जाता है। मुँह पर कुछ सूजन भी आ जाती है। थोड़े परिश्रम से ही वह थक जाता और हाँफने लगता है। यदि कृमियों की संख्या कम होती है तो लक्षण भी हलके होते हैं। रोग बढ़ जाने पर हाथ-पैर में भी सूजन आ जाती है। यह सब रक्ताल्पता का परिणाम होता है। रोग का निदान ऊपर लिखित लक्षणों से होता है। रोगी के मल की जाँच करने पर मल में कृमि के अंडे मिलते हैं, जिससे निदान का निश्चय हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ