अंडा

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लेख सूचना
अंडा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 35,38
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मुरलीधरलाल श्रीवास्तव

अंडा उस गोलाभ वस्तु को कहते हैं जिसमें से पक्षी, जलचर और मरीसृप आदि अनेक जीवों के बच्चे फूटकर निकलते हैं। पक्षियों के अंडों में, मादा के शरीर से निकलने के तुरंत बाद, भीतर केंद्र पर एक पीला और बहुत गाढ़ा पदार्थ होता है जो गोलाकार होता है। इसे योक कहते हैं। योक पर एक वृत्ताकार, चिपटा, छोटा, बटन सरीखा भाग होता है जो विकसित होकर बच्चा बन जाता है। इन दोनों के ऊपर सफेद अर्ध तरल भाग होता है जो ऐल्ब्युमेन कहलाता है। यह भी विकसित हो रहे जीव के लिए आहार है। सबके ऊपर एक कड़ा खोल होता है जिसका अधिकांश भाग खड़िया मिट्टी का होता है। यह खोल रध्रंमय होता है जिससे भीतर विकसित होने वाले जीव को वायु से आक्सीजन मिलता रहता है। बाहरी खोल सफेद, चित्तीदार या रंगीन होता है जिससे अंडा दूर से स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता और अंडा खाने वाले जंतुओं से उसकी बहुत कुछ रक्षा हो जाती है।

आरंभ में अंडा एक प्रकार की कोशिका (सेल) होता है और अन्य कोशिकाओं की तरह यह भी कोशिका द्रव्य (साइट्रोप्लाज्म) और केंद्रक (न्यूक्लियस) का बना होता है, परंतु उसमें एक विशेषता होती है जो और किसी प्रकार की कोशिका में नहीं होती और वह है प्रजनन की शक्ति। संसेचन के पश्चात्‌ जिसमें मादा के डिंब और नर के शुक्राणु कोशिका का समेकन होता है, और कुछ जंतुओं में बिना संसेचन के ही, डिंब विभाजित होता है, बढ़ता है और अंत में जिस जंतु विशेष का वह अंडा रहता है उसी के रूप, गुण और आकार का एक नया प्राणी बन जाता है।

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अंडे में प्रजनन की क्षमता से संबद्ध कुछ विशेष गुण होते हैं। अधिकांश जंतु अपने अंडों को शरीर से बाहर निकालने के पश्चात्‌ किसी उपयुक्त स्थान पर रख छोड़ते हैं, जहाँ अंडों का विकास होता है। ऐसे अंडों के कोशिका द्रव्य योक (पीतक) खाद्य पदार्थ से भरे होते हैं। यह साधारणत पीला होता है। योक के अतिरिक्त और भी बहुत से पदार्थ अंडे में होते हैं, जैसे वसा (फ़ैट), विटामिन, एनज़ाइम इत्यादि। जिन जंतुओं के अंडों में योक की मात्रा कम होती है उनमें अंड विकास की क्रिया अंतिम श्रेणी तक नहीं पहुँचती। भ्रूण विकास के लिए आवश्यक शक्ति अंडे में निस्सादित (डिपॉजिटेड) योक की रासायनिक प्रतिक्रिया से उत्पन्न होती है और इस कारण जब अंडे में योक पर्याप्त मात्रा में नहीं होता तो शरीर निर्माण की क्रिया बीच ही में रुक जाती है। कुछ प्राणियों के अंडों में ऐसी ही अवस्था होती है तथा इनका अंडा बढ़कर डिंभ (लारवा) बनता है। डिंभ अपना खाद्य स्वयं खोजता और खाता है जिससे इसके शरीर का पोषण तथा वर्धन होता है और अंत में डिंभ का रूपांतरण होता है। परंतु जिन जंतुओं के अंडों में योक पर्याप्त मात्रा में उपस्थित होता है उनमें रूपांतरण नहीं होता। कुछ ऐसे भी जंतु होते हैं जिनमें अंड विकास शरीर के बाहर नहीं बल्कि मादा के शरीर के भीतर होता है। ऐसे जंतुओं के अंडों में योक नहीं होता।

अंडा प्रोटोज़ोआ से उच्च वर्गीय शारीरिक संगठन वाले सब जंतु समूहों में पाया जाता है। निम्न श्रेणी के जंतुओं के अंडों में भी योक होता है और अधिकांश में कड़ा खोल भी, जिसे कवच कहते हैं। किरीटिन (रोटिफ़ेरा) के अंडों में एक विचित्रता पाई जाती है। अंडे सब एक समान नहीं, प्रत्युत तीन प्रकार के होते हैं। ग्रीष्म ऋतु के अंडे दो प्रकार के होते हैं, छोटे तथा बड़े। इन अंडों का विकास बिना संसेचन के ही होता है। बड़े अंडों के विकास से मादा उत्पन्न होती है और छोटों से नर। हेमंत काल के अंडे मोटे कवच से घिरे होते हैं और इनके विकास के लिओ संसेचन आवश्यक होता है। ये अंडे हेमंत ऋतु के अंत में विकसित होते हैं।

केंचुआ वर्ग (ओलिगोकोटा) में केंचुओं के संसेचित अंडे कुछ ऐल्ब्युमेन के साथ (कोकून कोश में) बंद रहते हैं। ये भूमि में दिए जाते हैं और मिट्टी में ही इनका विकास होता है।

जोंकों में भी अंडे योक तथा शुक्रपुटी (स्पर्माटोफोर्स) के साथ कोकून कोश में बंद रहते हैं। यो कोकून कोश गीली मिट्टी में दिए जाते हैं।

कीटों के अंडों में भी योक एवं वसा अधिक मात्रा में होती है। अंडे कई झिल्लियों से घिरे होते हैं। अधिकांश कीटों के अंडे बेलनाकार होते हैं, परंतु किसी-किसी के गोलाकार भी होते हैं।

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कठिनि वर्ग (क्रस्टेशिआ) में से किसी-किसी के अंडे एकतपीती (एक ओर योकवाले, टीलोसेसिथाल) होते हैं और कुछ केंद्रपाती (बीच में योकवाले, सेंट्रोलेसिथाल)। कुछ क्लोमपादा (ब्रैंकिओपोडा) तथा अखंडितांग अनुवर्ग (ऑस्ट्राकोडा) में अंडे बिना संसेचन के विकसित होते हैं। जलपिंशु प्रजाति (डैफ़्निआ) में ग्रीष्म ऋतु के अंडे बिना संसेचन के ही विकसित हो जाते हैं, परंतु हेमंत काल में दिए हुए अंडों के लिए संसेचन आवश्यक होता है। बिच्छुओं के अंडे गोलाकार होते हैं और इनमें पीतक पर्याप्त मात्रा में होता है। मकड़ियों के अंडे भी गोलाकार होते हैं और इनमें भी पीतक होता है। ये कोकुन कोश के भीतर दिए जाते हैं और वहीं विकसित होते हैं।

उदरपाद चूर्णप्रावार (शंख वर्ग, गैस्ट्रोपोडा मोलस्क) ढेरियों में अंडे देते हैं जो श्लेष्यक (जेली) में लिपटे रहते हैं। इन ढेरियों के भाँति-भाँति के आकार होते हैं। अधिकांश लंबे, बेलनाकार अथवा पट्टी की तरह के या रस्सी के रूप के होते हैं। इस प्रकार की कई रस्सियाँ आपस में मिलकर एक बड़ी रस्सी भी बन जाती है। अग्रक्लोम गण (प्रॉसीब्रैंकिआ) में अंडे श्वेत द्रव के साथ एक संपुट (कैप्सूल) में बंद होते हैं। इस प्रकार के बहुत से संपुट इकट्ठा किसी चट्टान अथवा समुद्री घास से सटे पाए जाते हैं।

ऐसा भी होता है कि संपुट के भीतर के भ्रूणों में से केवल एक ही विकसित होता है और शेष भ्रूण उसके लिए खाद्य पदार्थ बन जाते हैं। स्थलचर फुप्फुस-मंथर-गण (पलमोनेटा प्राणी) में प्रत्येक अंडा एक चिपचिपे पदार्थ से ढका रहता है और कई अंडे एक-दूसरे से मिलकर एक श्रृंखला बनाते हैं जो पृथ्वी पर छिद्रों में रखे जाते हैं। निकंचुक (वैजिन्युला) में उस ऐल्ब्युमिनी ढेर का, जिसके भीतर अंडा रहता है, ऊपरी तल कुछ समय में कड़ा हो जाता है और चूने के कवच के समान प्रतीत होता है।

शीर्षपादा (सेफ़ालोपोडा) के अंडे बड़ी नाप के होते हैं और इनमें पीतक की मात्रा भी अधिक होती है। प्रत्येक अंडा एक अंडवेष्ट कला (झिल्ली) से युक्त होता है। अनेक अंडे एक श्लेषी पदार्थ अथवा चर्म सदृश पदार्थ समावृत होते हैं और या तो एक श्रृंखला में क्रम से लगे होते हैं या एक समूह में एकत्रित रहते हैं।

समुद्र तारा (स्टार फिश) के अंडों का ऊपरी भाग स्वच्छ काँच के समान होता है और केंद्र में पीला अथवा नारंगी रंग का योक होता है।

हलक्लोम वर्ग (एलास्मोब्रांकिआइ) के संसेचित अंडे एक आवरण के भीतर बंद रहते हैं जो किरेटिन का बना होता है। ऐसा अंडावरण कुंठतुंड वर्ग (हॉलोसेफालि) में भी पाया जाता है। स्पृशतुंड प्रजाति (कैलोरिंकम) में इनकी लंबाई लगभग 25 सेंटीमीटर होती है। रश्मिपक्षा (ऐक्टिनोप्लेरिगिआइ) के अंडे इन मछलियों के अंडों से छोटे होते हैं और बिरले ही कभी आवरण में बंद होते हैं। मछलियाँ लाखों की संख्या में अंडे देती हैं। कुछ के अंडे पानी के ऊपर तैरते हैं, जैसे स्नेहमीनिका (हैडक), कंटपृथा (टरबट), चिपिटा (सोल) तथा स्नेहमीन (कॉड) के। कुछ के अंडे पानी में डूबकर पेंदी पर पहुँच जाते हैं; जैसे बहुला (हेरिंग), मृदुपक्षा (सैमन) तथा कर्बुरी (ट्राउट) के। कभी-कभी अंडे चट्टानों के ऊपर सटा दिए जाते हैं। फुप्फुसमत्स्या (डिप्नोइ) के अंडे एक श्लेषीय आवरण में रहते हैं जो पानी के संपर्क से फूल उठते हैं। विपुच्छ गण (ऐन्यूरा) ढेरियों में अंडे देते हैं। प्रत्येक अंडे का ऊपरी भाग काला और नीचे का श्वेत होता है और वह एक ऐल्ब्युमिनी आवरण में बंद रहता है। एक वार दिए गए समस्त अंडे एक ऐल्ब्युमिनी ढेर में लिपटे रहते हैं। अंडे एक ओर योक वाले (टीलोलेसिथाल) होते हैं।

अधिकांश सरीसृप (रेप्टाइल्स) अंडे देते हैं, यद्यपि कुछ बच्चे भा जनते हैं। अंडे का कवच चर्मपत्र सदृश अथवा कैल्सियममय होता है। अंडे अधिकांश भूपृष्ठ के छिद्रों में रखे जाते हैं और सूर्य के ताप से विकसित होते हैं। मादा घड़ियाल अपने अंडों के समीप ही रहती और उनकी रक्षा करती है।

पक्षियों के अंडे बड़े होते हैं और पीतक से भरे रहते हैं। जीव द्रव्य (प्रोटोप्लाज़्म) पीतक के ऊपर एक छोटे से भ्रूणीय बिंब (जरमिनल डिस्क) के रूप में होता है। अंडे का सबसे बाहरी भाग एक कैल्सियममय कवच होता है। इसके भीतर एक चर्म पत्र सदृश कवचकला होती है। यह कला द्विगुण होती है। ब्राह्म और आंतरिक पर्दों के बीच, अंडे के चौड़े अंत पर, एक रिक्त स्थान होता है जिसे वायुकूप कहते हैं। कवचकला अंडे के आंतरिक तरल भाग को चारों ओर से घेरे रहती है। तरल पदार्थ का बाहरी भाग ऐल्ब्युमिनमय होता है जिसके स्वयं दो भाग होते हैं। इसका बाह्य भाग स्थूल तथा श्यान (विस्कस) होता है और इसके दोनों सिरे रस्सी के समान बटे होते हैं जिन्हें श्वेतक रज्जु (कालेज़ा) कहते हैं। भीतरी ऐल्ब्युमेन अधिक तरल होता है। जैसा पहले बताया गया है, अंडे का केंद्रीय भाग योक कहलाता है।

कवच तीन स्तरों का बना होता है। इसके बाहरी तल पर एक स्तर होता है जिसे उच्चर्म कहते हैं। कवच अनेक छिद्रों तथा कुल्यिकाओं से बिद्ध होता है। इन छिद्रों में एक प्रोटीन पदार्थ होता है जो किरेटिन से अधिक कोलाजेन के सदृश होता है। (कोलाजेन सरेस के समान एक पदार्थ है जो शरीर के तंतुओं में पाया जाता है।)

सबसे छोटे अंडे प्रकूज पक्षी (हमिंग बर्ड) के होते हैं और सबसे बड़े विधावी (मोआ) तथा तुगंविहंग प्रजाति (ईपिओर्निस) के।

ऊपर कहा जा चुका है कि अंडे के ऐल्ब्युमेन के तीन स्तर होते हैं। इनकी रासायनिक संरचना भिन्न-भिन्न होती है जैसा निम्नलिखित सारणी से प्रतीत होता है:

अंडे के ऐल्ब्युमेन के प्रोटीन

आंतरिक मध्य स्थूल बाह्य सूक्ष्म

सूक्ष्म स्तर स्तर स्तर

अंडश्लेष्म (ओवोम्यूसिन) 1.10 5.11 1.91

अंडावर्तुलि (ओवोग्लोबुलिन) 9.59 5.59 3.66

अंड ऐल्ब्युमेन (ओवोऐल्ब्युमेन) 89.29 89.19 94,43

इन तीनों स्तरों के जल की मात्रा में कोई विभिन्नता नहीं होती। श्यानता में अवश्य विभिन्नता होती है, परंतु यह एक कलिलीय (कलायडल) घटना समझी जाती है। अंड ऐल्ब्युमेन में चार प्रकार के प्रोटीनों का होना तो निश्चित रहता है-- अंडश्वेति (अंड ऐल्ब्युमेन), समश्वेति (कोनाल्ब्युमेन), अंडश्लेष्मा (ओवोम्यूकॉएड) तथा अंडश्लष्मि, परंतु अंडाबर्तुली का होना अनिश्चित है। अंडश्वेति में प्रस्तुत भिन्न-भिन्न प्रोटीनों की मात्रा निम्नलिखित सारणी में दी गई है

अंडश्वेति 77 प्रतिशत

समश्वेति 3 प्रतिशत

अंडश्लेष्माभ 13 प्रतिशत

अंडश्लेष्मि 7 प्रतिशत

अंडावर्तुलि लेशमात्र

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कहा जाता है कि अंडश्वेति का कार्बोहाइड्रेट वर्ग क्षीरीधु (मैनोज़) है। अन्य अनुसंधान के अनुसार यह एक बहुशर्करिल (पॉलीसैकाराइड) है जिसमें 2 अण (मॉलेक्यूल) मधुम-तिक्ती (ग्लुकोसामाइन) के हैं, 4 अणु क्षीरीधु के और 1 अणु किसी अनिर्धारित नाइट्रोजनमय संघटक का है। अंडश्लेष्माभ में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक होती है (लगभग 10 प्रतिशत)। संयुक्त बहुशर्करिल मधुम-तिक्ती तथा क्षीरीधु का समाण्विक (इक्विमॉलेक्यूलर) मिश्रण होता है। किस हद तक यो प्रोटीन जीवित अवस्था में वर्तमान रहते हैं, यह कहना अति कठिन है।

मुर्गी के अंडे का केंद्रीय भाग पीला होता है, उस पर एक पीला स्तर विभिन्न रचना का होता है। इन दोनों पीले भागों के ऊपर श्वेत स्तर होता है जो मुख्यत ऐल्बयुमेन होता है। इसके ऊपर कड़ा छिलका होता है। योक का मुख्य प्रोटीन आंडोपीति (बिटेलिन) है जो एक प्रकार का फास्फो प्रोटीन है। दूसरी श्रेणी का प्रोटीन लिवेटिन है जो एक कूट-आवर्तुलि (स्युडोग्लोबुलिन) है जिसमें 0.067 प्रतिश फासफोरस होता है। तीसरा प्रोटीन आंडोपोति श्लेष्माभ (विटेलोम्युकाएड) है जिसमें 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। योक में क्लीव वसा, भास्वयेय, तथा सांद्रव (स्टेरोल) भी पर्याप्त मात्रा में होते हैं। 55 ग्राम के एक अंडे में 5.58 ग्राम क्लीब वसा तथा 1.28 ग्राम फास्फेट होता है, जिसमें ०.68 ग्राम अंडपीति (लेसिथिन) होता है। अंडपीति के वसाम्ल (फ़ैटी ऐसिड) अधिकांश समतालिक (आइसोपासिटिक), म्रक्षिक (ओलेइक), आतसिक लिनोलेइक), अदंतमीनिक (क्लुपानोडोनिक) तथा 9:10- षोडशीन्य (डेक्साडेकानोइक) अम्ल हैं। तालिक तथा वसा अम्ल कम मात्रा में होते हैं। अंडे में मास्तिष्कि (सेफ़ालिन) भी होती है, तथा १.७५ प्रतिशत पित्त सांद्रव (कोलेस्टेरोल)।

अंडे के पीले तथा श्वेत दोनों ही भागों में विटामिन पाए जाते हैं, किंतु पीले भाग में अधिक मात्रा में, जैसा इस सारणी में दिया गया है-

विटामिन पीले भाग में श्वेत भाग में

ए + -

बी1 + -

बी2 + +

पी-पी + -

सी - -

डी + -

ई + -

आहार में अंडे

पक्षियों के अंडे, विशेषकर मुर्गी के अंडे, प्राचीन काल से ही विभिन्न देशों में बड़े चाव से खाए जा रहे हैं। भारत में अंडों की खपत कम है क्योंकि अधिकांश हिंदू अंडा खाना धर्मविरुद्ध समझते हैं। अंडों में उत्तम आहार के अधिकांश अवयव सुपच रूप में विद्यमान रहते हैं, उदाहरणत कैल्सियम और फास्फोरस, जिनकी आवश्यकता शरीर की हड्डियों के पोषण में पड़ती है, लोहा, जो रुधिर के लिए आवश्यक है, अन्य खनिज, प्रोटीन, वसा इत्यादि, अंडे में ये सभी रहते हैं। कार्बोहाइड्रेट अंडे में नहीं रहता; इसलिए चावल, दाल, रोटी के आहार के साथ अंडों की विशेष उपयोगिता है, क्योंकि चावल आदि में प्रोटीन की बड़ी कमी रहती है। अंडा पूर्ण रूप से पच जाता है- कुछ सिट्ठी नहीं बचती। इसलिए आहार में अधिक अंडा रहने से कोष्ठबद्धता (कब्ज) उत्पन्न होने का डर रहता है। विदेशों में अधिकांश प्रकार के भोजनों में अंडा डाला जाता है। सूप, जेली, चीनी आदि को स्वच्छ करने में, कुरकुरी आहार वस्तुओं के ऊपर चित्ताकर्षक तह चढ़ाने के लिए, टिकिया आदि को खस्ता बनाने के लिए, मोयन के रूप में, केक बनाने में, आइसक्रीम में, पूआ और गुलगुला बनाने में अंडों का बहुत प्रयोग होता है। रोग के बाद दुर्बल व्यक्तियों के लिए कच्चे अंडे या अंडे के पेय का प्रयोग होता है। देर तक उबाले कड़े अंडे सब्जियों में पड़ते हैं। भारत में उबले अंडे, घी या मक्खन में आधे तले हुए (हाफ़ फ्राइड) अंडे और अंडे के आमलेट का अधिक चलन है। खनिज, प्रोटीन, वसा इत्यादि, अंडे में ये सभी रहते हैं। कार्बोहाइड्रेट अंडे में नहीं रहता; इसलिए चावल, दाल, रोटी के आहार के साथ अंडों की विशेष उपयोगिता है, क्योंकि चावल आदि में प्रोटीन की बड़ी कमी रहती है। अंडा पूर्ण रूप से पच जाता है-कुछ सिट्ठी नहीं बचती। इसलिए आहार में अधिक अंडा रहने से कोष्ठबद्धता (कब्ज) उत्पन्न होने का डर रहता है। विदेशों में अधिकांश प्रकार के भोजनों में अंडा डाला जाता है। सूप, जेली, चीनी आदि को स्वच्छ करने में, कुरकुरी आहार वस्तुओं के ऊपर चित्ताकर्षक तह चढ़ाने के लिए, टिकिटा आदि को खस्ता बनाने के लिए, मोयन के रूप में, केक बनाने में, आइसक्रीम में, पूआ और गुलगुला बनाने में अंडों का बहुत प्रयोग होता है। रोग के बाद दुर्बल व्यक्तियों के लिए कच्चे अंडे या अंडे के पेय का प्रयोग होता है। देर तक उबाले कड़े अंडे सब्जियों में पड़ते हैं। भारत में उबले अंडे, घी या मक्खन में आधे तले हुए (हाफ़ फ्राइड) अंडे और अंडे के आमलेट का अधिक चलन है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ