अखरोट

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लेख सूचना
अखरोट
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 71
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक नारायनसिंह परिहार।

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अखरोट गंधयुक्त विशाल सुंदर पतझड़ीय वृक्ष है जिसकी सुगंध अपने ढंग की निराली होती है। इसकी ऊँचाई 13-33 मीटर और तने की परिधि 3-6 मीटर तक होती है। इसका छत्र फैला हुआ होता है। बड़े वृक्ष की छाल भूरी, खुरदुरी तथा लंबी-लंबी दरारों से युक्त होती है। जाड़ों में पेड़ पत्रहीन हो जाता है और नई पत्तियाँ फरवरी में आती हैं। इसकी संयुक्त पत्तियाँ 15 से 30 सेंटीमीटर तक लंबी होती है और तने पर एकांतरत लगी रहती है। अखरोट फरवरी से अप्रैल तक फूलता है। इसके फूल हरे रंग के तथा एकलिंगी होते हैं; लेकिन उसी वृक्ष पर नर और मादा दोनों प्रकार के फूल आते हैं। कई नर फूल एक लटकती हुई मंजरी (कैटकिन) में और मादा फूल शाखाओं के सिरों पर 1 से 6 तक लगे रहते हैं। इसके फल जुलाई से सितंबर तक पकते हैं। इसका गुठलीदार फल (ड्रूप) अंडाकार और पाँच सेंटीमीटर तक लंबा होता है। इसमें एक हरा, मोटा, मांसल छिलका होता है जिसके अंदर कड़ा कठफल (नट) रहता है। फल में केवल एक बीज होता है। बीज का भक्ष्य भाग या गिरी दो झुर्रीदार बीज पत्रों का बना होता है।

वनस्पतिशास्त्री अखरोट को जूगलैंस रीजिया कहते हैं और इसका समावेश इसी वृक्ष को आदर्श मानकर इसी के नाम पर अक्षोट फुल या जूगलैंडसी में करते हैं। अंग्रेजी में इसे वालनट, हिंदी एवं बँगला में अखरोट, और संस्कृत में अक्षोट या अक्षोड कहते हैं। इंग्लैंड में बाजार में बिकने वाले अखरोट को फारसी अखरोट (पर्शियन वालनट) कहते हैं। उसी को अमरीका वाले कभी फारसी अखरोट और कभी अंग्रेजी अखरोट कहते हैं। अखरोट का मूल स्थान हिमालय, हिंदूकुश, उत्तरी ईरान और काकेशिया है। इसके वृक्ष भारत में हिमालय के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों, जैसे काश्मीर, कुमायूँ, नेपाल, भूटान, सिक्किम इत्यादि में समुद्रतल से 2,135 से 3,050 मीटर तक की ऊँचाई पर जगंली रूप में उगे हुए पाए जाते हैं, परंतु 915 से 2,135 मीटर तक ये उत्तम लकड़ी तथा फलों के लिए उगाए जाते हैं।

अखरोट के वृक्ष को प्रकाश की अधिक आवश्यकता होती है और खादयुक्त दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। अमरीका में वृक्षों को प्रति वर्ष हरी खाद दी जाती है और कई बार सींचा भी जाता है। सामान्यत अखरोट के पौधे बीजों से उगाए जाते हैं। पौद तैयार करने के लिए बीजों को पकने के मौसम में ताजे पके फलों से एकत्र कर तुरंत बो देना चाहिए, क्योंकि बीजों को अधिक दिन रखने पर उनकी अंकुरण शक्ति घटती जाती है। एक वर्ष तक गमलों में लगाकर बाद में पौधों को निश्चित स्थानों पर लगभग पचास-पचास फुट के अंतर पर रोपना चाहिए। अमरीका में अब अच्छी जातियों की कलमें लगाई जाती हैं या चश्मे (बड) बाँधे जाते हैं।

अखरोट के पेड़ की महत्ता उसके बीजों, पत्तियों तथा लकड़ी के कारण है। इसकी लकड़ी हलकी परंतु मजबूत होती है। यह कलापूर्ण साजसज्जा की सामग्री (फर्नीचर) बनाने, लकड़ी पर नक्काशी करने और बंदूक तथा राइफल के कुंदों (गन स्टॉक) के लिए सर्वोत्तम समझी जाती है। इसका औसत भार 20.53 किलोग्राम प्रति वर्ग फुट है। इसके फल के बाहरी छिलके से एक प्रकार का रंग तैयार किया जाता है जो लकड़ी रँगने और कच्चा चमड़ा सिझाने के काम में आता है। बीज की स्वादिष्ट गिरी बड़े चाव से खाई जाती है। गिरी से तेल भी निकाला जाता है जो खाया, जलाया तथा चित्रकारों द्वारा काम में लाया जाता है। अखरोट के वृक्ष की छाल, पत्तियाँ, गिरी, फल के छिलके इत्यादि चिकित्सा में भी काम आते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इसकी गिरी में कामोद्दीपक गुण होते हैं और यह अम्लपित्त (हार्ट बर्न), उदरशूल (कॉलिक), पेचिश इत्यादि में लाभकर समझी जाती है। गिरी का तेल रेचक, पित्त के लिए गुणकारी तथा पेट से कृमि निकालने में भी उत्तम समझा जाता है। पेड़ की छाल में कृमिनाशक, स्तंभक तथा शोधक गुण होते हैं। पत्ती एवं छाल का क्वाथ त्वचा अनेक बीमारियों, जैसे अगियासन (हरपीज़), उकवत (एक्जीमा), गंडमाला तथा व्राणों में लाभ पहुँचाता है। इसकी पत्तियाँ उत्तम चारे का काम देती हैं।कैलिफ़ोर्निया (अमरीका) में अखरोट बहुत अधिक मात्रा में उगाया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ