अजातिवाद
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अजातिवाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 84 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामचंद्र. पाडेय । |
अजातिवाद गौडपादाचार्य ने मांडूक्यकारिका में सिद्ध किया है कि कोई भी वस्तु कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकती। अनुत्पत्ति के इसी सिद्धांत को अजातिवाद कहते हैं। गौडपादाचार्य के पहले उपनिषदों में भी इस सिद्धांत की ध्वनि मिलती है। माध्यमिक दर्शन में तो इस सिद्धांत का विस्तार से प्रतिपादन हुआ है। उत्पन्न वस्तु उत्पत्ति के पूर्व यदि नहीं है तो उस अभावात्मक वस्तु की सत्ता किसी प्रकार संभव नहीं है क्योंकि अभाव से किसी की उत्पत्ति नहीं होती। यदि उत्पत्ति के पहले वस्तु विद्यमान है तो उत्पत्ति का कोई प्रयोजन नहीं। जो वस्तु अजात है वह अनंत काल से अजात रही है अत उसका स्वभाव कभी परिवर्तित नहीं हो सकता। अजात वस्तु अमृत है अत वह जात होकर मृत नहीं है सकती। इन्हीं कारणों से कार्य-कारण-भाव को भी असिद्ध किया गया है। यदि कार्य और कारण एक हैं तो कार्य के उत्पन्न होने के कारण को भी उत्पन्न होना होगा, अत सांख्यानुमोदित नित्य-कारण-भाव सिद्ध नहीं होता। असत्कारण से असत्कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, न तो सत्कार्यज असत्कार्य को उत्पन्न कर सकता है। सत् से असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती और असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव कार्य न तो अपने आप उत्पन्न होता है और न किसी कारण द्वारा उत्पन्न होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं. ग्रं.- गौडपाद मांडूक्यकारिका; नागार्जुन माध्यमिक कारिका।