अद्वैतवाद

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लेख सूचना
अद्वैतवाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 98,99
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामचंद्र पांडेय।

अद्वैतवाद (ऐब्सोल्यूटिज्म) दर्शन की वह धारा जिसमें एक तत्व को ही मूल माना जाता है। वेद तथा उपनिषदों में एक पुरुष या एक ब्रह्म का सर्वप्रथम प्रतिपादन मिलता है। गीता तथा पुराणों में इस सिद्धांत का विस्तार के प्रतिपादन किया गया है। बादरायणकृत ब्रह्मसूत्र में भी कुछ व्याख्याताओं के अनुसार अद्वैतवाद प्रतिपादित है। बौद्ध दर्शन का महायान प्रस्थान यद्यपि अद्वयवादी कहा जाता है, तथापि अद्वयवाद और अद्वैतवाद में भेद नगण्य है। गौड़पाद (7वीं शताब्दी) अद्वैतवाद के सर्वप्रथम ज्ञानप्रतिपादक हैं, जिन्होंने तार्किक दृष्टि से अद्वैत सिद्धांत की प्रतिपादन किया। भर्तृहरि तथा मंडन मिश्र ने भी गौड़पाद का अनुसरण किया। अद्वैतवाद के इतिहास में शंकराचार्य का नाम सर्वोच्च माना जाता है। उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर आचार्य शंकर ने अद्वैतवाद को अत्यंत दृढ़ भूमिका प्रदान की। शंकर के बाद तार्किककार सुरेश्वर, शामतीकार वाचस्पति, पद्मपाद, अप्पय्य दीक्षित, श्रीहर्ष, मधुसूदन सरस्वती आदि ने शांकर अद्वैतवाद की अनेक कारिकाएँ प्रस्तुत कीं। केवल वैदिक परंपरा में ही नहीं, अवैदिक परंपरा में भी अद्वैतवाद का विकास हुआ। शैव और शाक्त तंत्रों में से अनेक तंत्र अद्वैतवादी हैं। महायान दर्शन को आधार मानकर चलने वाले सिद्ध योगी सरहपाद आदि अद्वैतवादी ही हैं।

पश्चिम में अद्वैतपाद का आभास सर्वप्रथम सुकरात के दर्शन में मिलता है। अफलातून (प्लेटो) के दर्शन में अद्वैतवाद बहुत स्पष्ट हो जाता है। मध्ययुगीन नव्य अफलातूनी दर्शन तथा ईसाई संतों के विचारों से परिपुष्ट होता हुआ अद्वैतवाद इमानुएल कांट के दर्शन के रूप में विकसित होता है। कांट ने ही अद्वैत दर्शन को वैज्ञानिक तर्क से पुष्ट किया और हीगेल ने कांट द्वारा निर्मित भूमिका पर अद्वैतवाद का सदृढ़ भवन खड़ा किया। हीगेल के बाद ब्रैडले, बोसांके, ग्रीन आदि ने अद्वैत को अनेक दृष्टियों से परखा। अब भी पश्चिम में अद्वैतवादी विचारक विद्यमान हैं।

वर्तमान युग के भारतीय विचारकों में स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद घोष प्रभृति चिंतकों ने अद्वैतवाद का ही परिपोषण किया है।

यद्यपि देश काल के भेद से तथा मनोवैज्ञानिक कारणों से अद्वैतवाद के नाना रूप मिलते हैं, तथापि उनमें प्राय गौण विवरणों के सिवाय बाकी सारी बातें समान हैं। यहाँ विभिन्न अद्वैतवादों में पाई जाने वाली समान विशेषताओं का ही उल्लेख संभव है।

अनुभव से हम नाना रूपात्मक जगत्‌ का ज्ञान करते हैं। हमारा अनुभव सर्वदा सत्य नहीं होता। उसमें भ्रम की संभावना बनी रहती है। भ्रम सर्वदा दोष से उत्पन्न होता है। यह दोष ज्ञाता और ज्ञेय दोनों में से किसी में रह सकता है। ज्ञातागत दोष या अज्ञान विषय के वास्तविक ज्ञान का बाधक है। हमारे अनुभव का प्रसार दिक्काल की परिधि में ही होता है। दिक्काल से परे वस्तु का ज्ञान संभव नहीं है। अत ज्ञाता वस्तु को दिक्कालसापेक्ष देखता है, वस्तु को अपने आपमें (थिंग-इन-इटसेल्फ) वह नहीं देख पाता। इस दृष्टि से सारा ज्ञान अपूर्ण हैं। ज्ञेय वस्तु भी सर्वदा स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकती। एस वस्तु दूसरी वस्तु पर आधारित है, अत वस्तु की निरपेक्ष सत्ता संभव नहीं। सभी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, अत वे अपनी सत्ता के लिए अपने कारणों पर निर्भर करती हैं और वे कारण अपने उत्पादकों पर निर्भर हैं। इसलिए वस्तु का ज्ञान भी ज्ञेय की दृष्टि से अधूरा है।

सापेक्ष तत्व एक-दूसरे के सहारे नहीं रह सकते। उनकी स्थिति के लिए एक निरपेक्ष आधार की आवश्यकता है। ज्ञाता की दृष्टि से यह आधार दिक्काल की परिधि से परे हो और ज्ञेय की दृष्टि से कारणातीत हो। यदि ऐसा कोई आधार संभव हो उसे हम जान नहीं सकते, क्योंकि हमारा ज्ञान दिक्काल तक ही सीमित है। साथ ही वह आधार कारणातीत हैं, वह स्वयं वस्तु का कारण बनकर कार्य सापेक्ष नहीं हो सकता। अत उससे किसी कार्य की उत्पत्ति भी नहीं होगी। ऐसे निरपेक्ष तत्व अनेक नहीं हो सकते, क्योंकि अनेकता भी एकसापेक्ष है, अत अनेकता मानने पर निरपेक्षता नष्ट हो जाएगी।

यदि हम तर्क के द्वारा ऐसे तत्व की कल्पना तक पहुँचते हैं जो अज्ञेय और कारणातीत है तो उस तत्व का इस संसार से कोई संबंध न होना चाहिए। किंतु कारणातीत होते हुए भी उस तत्व को संसार का मूल इसलिए माना गया है कि वही तो एक निरपेक्ष आधार है जिस पर सापेक्ष संसार की सृष्टि होती है। उस आधार के बिना संसार का अस्तित्व असंभव है. ज्ञाता और ज्ञय उस एक तत्व के ही सीमित से दिखलाई देने वाले रूप हैं। इनसे यदि ससीमता हटा दी जाए तो ये परस्पर भेदरहित होकर एकाकार हो जाएँगे। इनकी ससीमता ही इनके उत्पादन और विनाश का रोगाकरण है। सीमा का एक आवरण भी कोई सत्य आवरण नहीं है। यह संबंधों के हाथ की तरह एकदेशीय और असत्‌ है। इस सीमा में आग्रह करने का विनाश होना ही तत्व के आवरण का नाश होना है।

आवरण का नाश सत्कर्मों के अनुष्ठान से, योग द्वारा चित्तशुद्धि से अथवा ज्ञानमात्र से होता है। इस दृष्टि से अनेक मार्ग प्रचलित होते हैं। इन मार्गों का उद्देश्य एक है और वह है वस्तु की ससीमता में आग्रह का विनाश। आग्रह के नाश के बाद वस्तु वस्तु के रूप में नहीं रहेगी और ज्ञाता ज्ञाता के रूप में नहीं होगा। सब एक तत्व होगा जिसमें ज्ञाता ज्ञेय, स्व पर का भेद किसी प्रकार संभव नहीं है। इस अभेद के कारण ही उस अवस्था को वाणी और मन से परे कहा गया है। नेति नेति कहने से केवल ससीम वस्तुओं की ससीमता का अभावप्रख्यापन मात्र संभव है।

इस तत्व को सत्ता, ज्ञान का आनंद की दृष्टि से देखने के कारण सत्‌, चित्‌ या आनंदात्मक ब्रह्म या शिव कहते हैं। सकल प्रपंच की आधारभूता शक्ति की दृष्टि से देखने पर यही शिवा या शक्ति नाम से अभिहित है। मन वाणी से परे होने के कारण शून्य, ज्ञान का चरम आधार होने के कारण विज्ञप्ति, वाक्‌ और अर्थ का प्रतिष्ठापक होने के कारण स्फोट या शब्द तत्व, समग्र प्रपंच में अनुस्यूत होकर निवास करने के कारण पूर्ण (ऐब्सोल्यूट) इसी एक तत्व के दृष्टिभेद से अनेक नाम हैं। यह भी विडंबना ही है कि नाम-रूप-जाति से परे वर्तमान तत्व को भी नाम दिया जाता है। किंतु यह नाम भी शब्दव्यवहार का सहायक होने के कारण सापेक्ष अत मिथ्या है। अद्वैतवाद का चरम दर्शन मौन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं. ग्रं.- उपनिषद् ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य नागार्जुन मूलमाध्यमिक कारिका भर्तृहरि वाक्यपदीय अभिनवगुप्त परमार्थसार प्लेटो पारमेनाइडीज कांट क्रिटीक ऑव प्योर रीजन हीगेल कंप्लीट वर्क्स ऑव हीगेल ब्रैडले अपियरेंस ऐंड रियलिटी डॉ. राधाकृष्णन वेदांत ऑव शंकर ऐंड रामानुज अरविंद लाइफ़ डिवाइन।