अध:शैल
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अध:शैल
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 99 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रमेशचंद्र मिश्र । |
अध:शैल पृथ्वी का अभ्यंतर पिघले हुए पाषाणों का आगार है। ताप एवं ऊर्जा का संकेंद्रण कभी-कभी इतना उग्र हो उठता है कि पिघला हुआ पदार्थ (मैग्मा) पृथ्वी की पपड़ी फाड़कर दरारों के मार्ग से बारह निकल आता है। दरारों में जमे मैग्मा के इन शैलपिंडों को नितुन्न शैल (इंट्रूसिव) कहते हैं। उन विराट् पर्वताकार नितुन्न शैलों को, जिनका आकार गहराई के साथ-साथ बढ़ता चला जाता है और जिनके आधार का पता ही नहीं चल पाता है, अधशैल (बैथोलिथ) कहते हैं।
पर्वत निर्माण की घटनाओं से अधशैलों का गंभीर संबंध है। विशाल पर्वत श्रृंखलाओं के मध्यवर्ती अक्षीय भाग में अधशैल ही अवस्थित होते हैं। हिमालय की केंद्रीय उच्चतम श्रेणियाँ ग्रेनाइट के अधशैलों से ही निर्मित हैं।
अधशैलों का विकास दो प्रकार से होता है। ये पूर्वस्थित शैलों के पूर्ण रासायनिक प्रतिस्थापन (रिप्लेसमेंट) एवं पुनस्फाटन (री-क्रिस्टैलाइजेशन) से निर्मित होते हैं और इसके अतिरिक्त अधिकांश छोटे-मोटे नितुन्न शैल पृथ्वी की पपड़ी फाड़कर मैग्मा के जमने से बनते हैं।
अध:शैलों की उत्पत्ति के विषय में स्थान का प्रश्न अति महत्वपूर्ण है। क्लूस, इडिंग्स आदि विशेषज्ञों का मत है कि पूर्वस्थित शैल आरोही मैग्मा द्वारा ऊपर एवं पार्श्व की ओर विस्थापित कर दिए गए हैं, परंतु डेली, कोल एवं बैरल जैसे विद्वानों का मत है कि आरोही मैग्मा ने पूर्वस्थित शैलों को सशरीर घोलकर आत्मसात् कर लिया या क्रमश कुतर कुतरकर सरदन (कोरोज़न) द्वारा अपने लिए मार्ग बनाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ