अनागारिक धर्मपाल
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
अनागारिक धर्मपाल
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 113 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सदगोपाल । |
अनागारिक धर्मपाल प्रसिद्ध बोद्ध भिक्षु। जन्म लंका में 17 सितंबर, 1864 को हुआ। पिता का नाम डान करोलिंस हेवावितारण तथा माता का मल्लिका था। इनका नाम डान डेविड रखा गया। शिक्षाकाल से ही इन्हें ईसाई स्कूलों में पढ़ने यूरोपीय रहन-सहन और विदेशी शासन से घृणा हो गई थी। शिक्षासमाप्ति पर प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् भदंत हिवकडुवे श्रीसुमंगल नामक महास्थविर से पालि भाषा की शिक्षा और बौद्ध धर्म की दीक्षा ली तथा अपना नाम बदलकर अनागरिक (संन्यासी) धर्मपाल रखा और सार्वजनिक प्रचार कार्य के लिए एक मोटर बस को घर बनाया और उसका नाम 'शोभन मालिगाँव' रखकर गाँव-गाँव घूमते विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा बौद्ध धर्म का संदेश देने लगे। प्रथम महायुद्ध के समय ये पाँच वर्षों के लिए कलकत्ता में नजरबंद कर दिए गए। महाबोधि सभा (महाबोधि सोसायटी) इनके ही प्रयत्न से स्थापित हुई। मेरी फास्टर नामक एक विदेशी महिला ने इनसे प्रभावित होकर महाबोधि सोसायटी के लिए लगभग पाँच लाख रुपए दिए थे।
धर्मपाल के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उनके निधनोपरांत राष्ट्रपति डा. राजेंद्रप्रसाद के हाथों बौद्ध गया वैशाख पूर्णिमा, सं. 2012 अर्थात् 6 मई, सन् 1955 को बौद्धों को दे दी गई। 13 जुलाई, 1931 को उन्होंने प्र्व्राज्या ली और उनका नाम देवमित धर्मपाल हुआ। 1933 की 16 जनवरी को प्र्व्राज्या पूर्ण हुई और उन्होंने उपसंपदा ग्रहण की, नाम पड़ा भिक्षु श्री देवमित धर्मपाल। 29 अप्रैल, 1933 को 69 वर्ष की आयु में इहलीला संवरण की। उनकी अस्थियाँ पत्थर के एक छोटे से स्तूप में मूलगंध कुटी विहार के पार्श्व में रख दी गई।
|
|
|
|
|