अनिर्देशात्मक चिकित्सा
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अनिर्देशात्मक चिकित्सा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 116,117 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलाशचंद्र शर्मा । |
अनिर्देशात्मक चिकित्सा ( नॉन-डायरेक्टिव थेरेपी) मानसिक उपचार की एक विधि है जिसमें रोगी को लगातार सक्रिय रखा जाता है और बिना कोई निर्देश दिए उसे नीरोग बनाने का प्रयत्न किया जाता है। प्रकारांतर से यह स्वसंरक्षण है जिसमें न तो रोगी को चिकित्सक पर निर्भर रखा जाता है और न ही उसके सम्मुख परिस्थितियों को व्याख्या की जाती है इसके विपरीत रोगी को परोक्ष रूप से सहायता देकर उसके ज्ञानात्मक एवं संवेगात्मक क्षेत्र को परिपक्व बनाने की चेष्टा की जाती है ताकि वह अपने को वर्तमान तथा भविष्य की परिस्थितियों से समायोजित कर सके। इसमें चिकित्सक का दायित्व मात्र इतना होता है कि वह रोगी के लिए 'स्वसंरक्षण'की व्यवस्था का उचित प्रबंध करता रहे क्योंकि रोगी के संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन लाने के लिए चिकित्सक का सहयोग वांछित ही नहीं, आवश्यक भी है।
अनिर्देशात्मक चिकित्सा विधि
अनिर्देशात्मक चिकित्सा विधि मनोविश्लेषण से काफी मिलती जुलती है। दोनों में ही चेतन-अवचेतन-स्तर पर प्रस्तुत भावना इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए पूरी आजादी रहती है। अंतर केवल यह है कि अनिर्देशात्मक उपचार में रोगी को वर्तमान की समस्याओं से परिचित रखा जाता है, जबकि मनोविश्लेषण में उसे अतीत की स्मृतियों अनुभूतियों की ओर ले जाया जाता है। मानसिक उपचार की यह विधि सफल रही है क्योंकि जैसे ही रोगी में एक विशिष्ट सूझ पैदा होती है, वह स्वस्थ हो जाता है।
निर्देशात्मक चिकित्सा में कतिपय दोष भी हैं:
1 कुछ व्यक्तियों और रोगों पर इसका प्रभाव नहीं होता।
2 उच्च बौद्धिक स्तर वालों पर ही यह विधि सफल होती है।
3 वर्तमान परिस्थितियों से संबद्ध समस्याएँ ही इससे सुलझ सकती हैं, अतीत में विकसित मनोग्रंथियों पर इसका प्रभाव नहीं होता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ