अनुबंध
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अनुबंध
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 123 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भोलानाथ तिवारी । |
अनुबंध (भाषा) शब्द का अर्थ है बंध या सातत्य अथवा संबंध जोड़नेवाला। व्याकरण में एक संकेतक अक्षर जो किसी शब्द के स्वर य विभक्ति में किसी विशेषता का द्योतक हो, जिसके साथ वह जुड़ा हुआ हो। किसी वर्ण या वर्णसमूह को भी अनुबंध कहा हाता है, किंतु प्रयोग के समय, लुप्त हो जाता है। लुप्त होनेवाला भाषातत्व 'इत्' कहा जाता है। पाणिनि ने जिसे 'इत्' कहा है उसका व्याकरण में प्राचीन नाम अनुबंध या इत् का प्रयोग व्याकरणिक वर्णन में एकरूपता लाने के लिए किया जाता है। प्रातिपदिकों से प्रत्ययों कें अनुबंध में दोनों के योग से नए शब्द की रचना होती है जिसका अर्थ बदल जाता है, यथा स्त्रीलिंग बनाने के लिए 'टाप्' अनुबंध में टकार एवं पकार का लोप होने से 'आ' शेष रह जाता है, जो प्रतिपदिकों में जुड़ता है) के योग से। 'अज' (ब्रह्मा) शब्द से स्त्रीलिंग बनाने के लिए 'टाप्' के सिर्फ 'आकार' के साथ योग करना पड़ता है, यथा अज+टाप्=अजा (बकरी)। इसी प्रकार अश्व+टाप्=अश्वा, बाल+टाप्=बाला, वत्स+टाप्=वत्सा। ङीप् तथा 'ङीष्' प्रत्यय का 'ई' अंश अनुबंध से पुल्लिंग शब्दों में स्त्रीत्व का बोध कराता है, यथा राजन्+ङीप=राज्ञी, दण्डिन्+ङीप्=दण्डिनी, गोप:+ङीप=गोपी, ब्रह्मण:+ङीप-ब्राह्मणी। 'पच्' (पकाना) धातु में 'घञ्ा' प्रत्यय के अनुबंध से 'ञ्ा' और 'घ' की व्यंजन ध्वनि लुप्त (इत्) हो जाती है, केवल अक्षरात्मक स्वर 'अ' युक्त होता है, किंतु अनुबंध से 'च' का परिवर्तन 'क्' में और 'प' के बाद आकार की वृद्धि होती है, तथा शब्द पुल्लिंग बनता है, यथा पच्+ घञ््ा=पाक:। इसी तरह 'पच्' में 'लुट्' प्रत्यय के अनुबंध में ल्, ट् व्यंजन ध्वनियाँ लुप्त हो जाती है, 'उ' बदलकर 'अन' आदेश बन जाता है, यथा पच्+लुट्=पचनम्। एक ही अर्थ की प्रतीति होने पर भी यह शब्द नपुंसक लिंग होता हैं। भिन्न प्रत्यय के अनुबंध से लिंगपरिवर्तन हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ