अपराध
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अपराध
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 137,138,139 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परिपूर्णानंद वर्मा,लालजीराम शुक्ल,कैलाशचंद्र शर्मा । |
अपराध जिस समय मानव समाज की रचना हुई अर्थात् मनुष्य ने अपना समाजिक संगठन प्रारंभ किया, उसी समय से उसने अपने संगठन की रक्षा के लिए नैतिक, सामाजिक आदेश बनाए। उन आदेशो का पालन मनुष्य का 'धर्म' बतलाया गया। किंतु, जिस समय से मानव समाज बना है, उसी समय से उसके आदेशों के विरुद्ध काम करनेवाल भी पैदा हो गए है, और जब तक मनुष्य प्रवृति ही न बदल जाए, ऐसे व्यक्ति बराबर होते रहेंगे।
युगों से अपराध की व्याख्या करने का प्रयास हो रहा है। अतएव के. सेन ने अपराध की सता इतिहास काल के भी पूर्व से मानी है। अतएव इसकी व्याख्या कठिन है। पूर्वी तथा पश्चिमी देशों के प्रारंभिक विधानों के नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक नियमों का तोड़ना समान रूप से अपराध था । सारजेंट सटीफन ने लिखा है कि समुदाय का बहुमत जिसे सही बात समझे, उसके विपरीत काम करना अपराध है। ब्लेकस्टन कहते हैं कि समुचे समुदाय के प्रति कर्तव्य है तथा उसके जो अधिकार हैं उनकी अवज्ञा अपराध का निर्णय नगर की समूची जनता करती थी । आज के कानून में अपराध 'सार्वजनिक हानि' की वस्तु समझा जाता है।
दो सौ वर्ष पूर्व तक संसार के सभी देशों की यह निश्चित नीति थी कि जिसने समाज के आदेशों की अवज्ञा की है, उससे बदला लेना चाहिए। इसीलिए अपराधी को घोर यातना दी जाती थी। जेलों में उसके साथ पशु से भी बुरा व्यवहार होता था। यह भावना अब बदल गई है। आज समाज की निश्चित धारणा है कि अपराध शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार का रोग है, इसलिए अपराधी की चिकित्सा करनी चाहिए। उसे समाज में वापस करते समय शिष्ट, सभ्य, नैतिक नागरिक बनाकर वापस करना है। अतएव कारागार यातना के लिए नहीं, सुधार के लिए है।
यह तो स्पष्ट हो गया कि अपराध यदि नैतिक तथा सामाजिक आदेशों की अवज्ञा का नाम है तो इस शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं बतलाया जा सकता। फ्रायड वर्ग के विद्धान् प्रत्येक अपराध को कामवासना का परिणाम बतलाते है तथा हीली जैसे शास्त्री उसे सामाजिक वातावरण का परिणाम कहते हैं, किंतु ये दोनों मत मान्य नही है। एक देश में एक ही प्रकार का धर्म नहीं है। हर एक में एक ही प्रकार का सामाजिक संगठन भी नहीं है, रहन सहन में भेद है, आचार विचार में भेद है, ऐसी स्थिति में एक देश का अपराध दूसरे देश में सर्वथा उचित आचार बन सकता है। कहीं पर स्त्री को तलाक देना वैध बात है, कहींपर सर्वथा वर्जित है। कहीं पर संयुक्त परिवार के जीवन उचित है, कहीं पर पारिवाकि जीवन का कोई कानूनी नियम नहीं है। सन् 1946-47 में इंग्लैंड में चोरबाजारी करनेवालो को कड़ा दंड मिलता था, फ्रांस में उसे एक 'साधारण' बात समझा जाता था। कई देश धार्मिक रूप से किया गया विवाह ही वैध मानते है। पूर्वी योरप तथा अन्य अनेक साभ्यवादी देशों में धार्मिक प्रथा से किए गए विवाह का कोई कानूनी महत्व ही नही होता।
संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी अपराघ की व्याख्या करने की चेष्टा की है और उसने भी केवल 'असामाजिक' अथवा 'समाजविरोधी' कार्यों को अपराध स्वीकार किया है। पर इससे विश्वव्यापी नैतिक तथा अपराध संबंधी विधान नहीं बन सकता। मोटे तौर पर सच बोलना, चोरी न करना, दूसरे के धन या जीवन का अपहरण न करना, पिता, माता तथा गुरुजनों का आदर, कामवासना पर नियंत्रण्, यही मौलिक नैतिकता है जिसका हर समाज मे पालन होता है और जिसके विपरीत काम करना अपराध है।
इटली के डा. लांब्रोजो पहले शास्त्री थे जिन्होने अपराध के बजाय 'अपराधी' को पहचानने का प्रयत्न किया । फेरी समाजविज्ञान द्वारा अपराध हो, चाहे कोई भी करे, किसी भी परिस्थिति में करे, उसका और कोई कारण नहीं, केवल यही कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्र इच्छा से किया गया है या प्राकृतिक या स्वाभाविक कारणों का परिण्णम है। गैरोफालो अपराध को मनोविज्ञान का विषय मानते थे : उनके अनुसार चार प्रकार के अपराधी होते है-हत्यारे, उग्र अपराधी, संपति के विरुद्ध अपराधी, तथा कामुक वासना के अपराधी। गैरोफालो के मत से प्राणदंड, आजन्म कारागार या देशनिकाला, ये ही तीन सजाएँ होनी चाहिऍं।
फाँन हामेल ने पहली बार अपराधी सुधार की चर्चा उठाई। फ्रांस पंडित तार्म्दे ने नैतिक जिम्मेदारी, 'व्यक्तिगत विशिष्टता' की चर्चा की। उनके उनुसार मनुष्य अपनी चेतना तथा अंतश्चेतना का समुच्चय मात्र है। उसके कार्यों से जिसे दु:ख पहुंचे यानी जिसके प्रति अपराध किया जाय उसको भी समान रूप से सामाजिक एकता के प्रति सचेत करना चाहिए।
फ्रांस की राज्यक्रांति ने 'मानव के अधिकार' की घोषणा की । अपराधी भी मनुष्य हैं। उसका भी कुछ नैसर्गिक अधिकार है। इसलिए अपराधी अपराध की व्याख्या चाहते है। इसकी सबसे स्पष्ट वयाख्या सन् 1934 के फ्रांसीसी दंडविधान ने की । अपराध वही है जिसे कानूनन मना किया गया हो। जिस चीज को तत्कालीन वातावरण में मना कर दिया गया है, उसी का नाम अपराध है। किंतु, कानूनन नाजायज काम करना ही अपराध नहीं रह गया है। डा. गुतनर ने जो बात उठाई थी वही आज हर एक न्यायालय के लिए महान् विषय बन गई है। वही अपराघ है। यदि छत पर पतंग उड़ाते समय किसी लड़के के पैर से एक पत्थर नीचे सड़क पर आ जाए और किसी दूसरे के सिर पर गिरकर प्राण ले ले तो वह लड़का हत्या का अपराधी नहीं हैद्य अतएव महत्व की वस्तु नीयत है। अपराध और उसके करने की नीयत-इन दोनों को मिला देने से ही वास्तविक न्याय हो सकता है।
किंतु समाजशास्त्र के पंडितों के सामने यह समस्या भी थी और है कि समाज की हानि करनेवाल के साथ व्यवहार कैसा हो। अफलातून का मत था कि हानि पहुँचानेवाले की हानि करना अनुचित है। प्रसिद्ध समाज-शास्त्री जिविक ने स्पष्ट कहा था कि न्याय कभी नहीं चाहता कि भूल करनेवाल यानी अपराध करनवाने को पीड़ा पहुँचाई जाए। लार्ड हाल्डेन ने भी अपराध का विचार न कर अपराधी व्यक्ति, उसकी समस्याएँ, उसके वातावरण पर विचार करने की सलाह दी है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ तथा कई बार प्रघान मंत्री बननेवाले विंस्टन चर्चिल का कथन है कि अपराध तथा अपराधी के प्रति जनता की कैसी भावना तथा दृष्टि है, उसी से उस देश की सभ्यता का वास्तविक अनुमान लग सकता है। ब्रिटिश कानून उसी काम को अपराध समझता है जो दुर्भाव से, स्वेच्छया, धूर्तततापूर्वक किया, कराया, करने दिया या होने दिया गया हो। बहुत से अपराध ऐसे होते हैं जो अपराध होने के कारण् ही अपराध नहीं समझे जाते । जैसे, ब्रिटेन में जीन प्रकार के विवाह नाजायज है अत: यदि विवाह हो भी गया तो वह विवाह नहीं समझा जाएगा, जैसे 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की से विवाह करना इत्यादि।
नवीन औद्योगिक सभ्यता में अपराध का रूप तथा प्रकार भी बदल गया है। नए किस्म के अपराध होने लगे हैं जिनकी कल्पना करना कठिन है। इसलिए अपराध की पहचान अब इस समय यही है कि कानून ने जिस काम को मना किया है, वह अपराध है। जिसने मना किया हुआ काम किया है, वह अपराधी है। किंतु, अपराधी परिस्थिति का दास हो सकता है, विवश हो सकता है, इसलिए उसे पहचानने का प्रयत्न करना होगा। आज का अपराध शास्त्र इसमें विश्वास नहीं करता कि कोई पेट से सीखकर आराधी बना है या कोई जानबूझ कर उसे अपना 'जीवन' बना रहा है। हर एक अपराध का तथा हर एक अपराधी का अध्ययन होना चाहिए। इसीलिए आज प्रत्येक अपराध तथा प्रत्येक अपराधी व्यक्तिगत अध्ययन, व्यक्तिगत निदान तथा व्यक्तिगत चिकित्सा का विषय बन गया है।
आधुनिक मनोविश्लेषण मनोविज्ञान
अपराध को मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम मानता है। जिस व्यक्ति का बाल्यकाल प्रेम ओर प्रोत्साहन के वातावरण में नहीं बीतता उसके मन में उनेक प्रकार की हीनता की मानसिक ग्रंथियाँ बन जाती हैं। इन ग्रंथियों में उसकी मन में उसकी बहुत सी मानसिक शक्ति संचित रहती है। डा. अलफ्रेड एडलर का कथन है कि जिस व्यक्ति के मन में हीनता की मानसिक ग्रंथियाँ रहती हैं वह अनिवार्य रूप से अनेक प्रकार के अपराध करता है। यह अपराध वह इसलिए करता है कि स्वयं को वह दूसरे लोगों से अधिक बलवान सिद्ध कर सके। हीनता की ग्रंथि तिस व्यक्ति मे मन में रहती हे वह सदा भीतरी मानसिक असंतोष की स्थिति में रहता है। वह सब समय ऐसे कामों मे अपने को लगाए रहता है जिससे सभी लोग उसकी ओर देखें और उसकी प्रशंसा करे। हीनता की मानसिक ग्रंथि मनुष्य को ऐसे कामों में लगाती है जिनके करने से मनुष्य को अनेक प्रकार की निंदा सूननी पड़ती है। ऐस व्यक्ति स्वयं को सदा चर्चा का विषय बनाए रखना चाहता है। यदि उसके भले कामों के लिए चर्चा नहीं हुई तो बुरे कामों के लिए ही हो। उसकी मानसिक ग्रंथि उसे शांत मन नहीं रहने देती । वह उसे सदा विशेष काम करने के लिए प्रेरणा देती रहती है। यदि ऐसे व्यक्ति को दंड किया जाए तो इससे उसका सुधार नहीं होता, अपितु इससे उसकी मानसिक ग्रंथि और भी जटिल हो जाती है। ऐसे अपराधी के उपचार के लिए मानसिक चिकित्सक की आवश्यकता होती है।
आधुनिक मनोविज्ञान ने हमें बताया है कि समाज में अपराध को कम करने के लिए दंडविधान को कड़ा करना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए समाज में सुशिक्षा की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य की कोई प्रवृति बचपन से ही प्रबल हो जाती है तो आगे चलकार वह विशेष प्रकार के कार्यो मे प्रकाशित होती है। ये कार्य समाज के लिए हितकर होते हें अथवा समाजविरोधी होते है। समाजविरोधी कार्य ही हमें व्यक्ति के प्रति उचित दृष्टिकोण रखना होगा । जिस बालक को बड़े लाड़ प्यार से रखा जाता है और उसे सभी प्रकार के कामों को करने के लिए छूट दे दी जाती है, उसमें दूसरों के सुख के लिए अपने सुख को त्यागने की क्षमता की नहीं आती। ऐस व्यक्ति की सामाजिक भावनाएँ अविकसित रह जाती है। जीवन सुस्वत्व का निर्माण नहीं होता । इसके कारण वह न तो समाजिक दृष्टि से भले बुरे का विचार कर सकता है ओर न बुरे कामों से स्वयं को रोकने की क्षमता प्राप्त कर पाता है । बालक के माता-पिता और आसपास का वातावारण तथा पाठशालाएँ इसमें महत्व का काम करती हैं। उचित शिक्षा का एक उद्देश्य यही है कि बालक अपने ऊपर संयम की क्षमता आ जाए। जिस व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की स्थिति जितनी अधिक रहती है वह अपराध उतना ही कम करता है।
समाज में बहुत से लोग अपने विवेक से प्रतिकूल अपराध करते हैं। इसका कारण क्या है? आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों के अनुसार ऐसे लोगों का बाल्यकाल ठीक से व्यतीत नहीं हुआ होता। ये लोग बुद्धि में तो जन्म से ही प्रवीण थे अतएव ये अनेक प्रकार के विचारों को जान सके। परंतु उनके मन में बचपन में ही ऐसे स्थायी भाव नहीं बने जिससे वे स्वयं को अनुचित कार्य करने से रोक सकें। ये स्थायी भाव जब तक मनुष्य के स्वभाव के अंग नहीं बन जाते तब तक वे मनुष्य को दुराचार से रोकने की क्षमता नहीं देते। ऐसे विद्वान् लोग अपराध करते हैं और उनके लिए स्वयं को कोसते भी हैं। इससे वे अपनी मानसिक उलझनें बढ़ा लेते हैं। कभी कभी वे अपने अनुचित कार्यों की नैतिकता सिद्ध करने में अपनी विद्वता का उपयोग कर डालते हैं। इनका सुधार सामान्य दंडविधान से नहीं हो पाता। वे इनसे बचने के अनेक उपाय रच लेते हैं। ऐसे लोगों को सुधारने के लिए आवश्यक है कि शिक्षा का ध्येय आजीविका कमाना अथवा व्यवहारकुशलता प्राप्त कर लेना न होकर मानव व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास अर्थात् बौद्धिक और भावात्मक विकास हो । जब मनुष्य दूसरों के हित में अपना हित देखने लगता है और इस सूझ के अनुसार आचरण करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है तभी वह समाज का सुयोग्य नागरिक होता है। ऐसा व्यक्ति जब कुछ करता है, वह समाज के हित के लिए ही होता है।
अपराध एक प्रकार की सामाजिक विषमता है। यह व्यक्तिगत मानसिक विषमता का परिणाम है। इस प्रकार की विषमता का प्रारंभ बाल्य काल में ही हो जाता है। इसके सुधार के लिए प्रारंभ में आदत डालनी पड़ती है कि वह दूसरों के सुख में निज सुख का अनुभव करे। वह ऐसे काम करे जिससे सभी का हित हो और सब उसकी प्रशंसा करें।
हिंदू धर्मशास्त्रों के अनूसार सामान्यतया चलित धर्मशास्त्र के नियम, सामाजिक नियम और राजनियम के विरूद्ध आचरण करना ही अपराध हैं। हिंदू धर्मशास्त्रों का विचारक्षेत्र बहुत व्यापक हे जिसके अंतर्गत आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी प्रकार के नियमों के उल्लंधन का विचार मिलता हैं। इसी के अनुसार हिंदू धर्मशास्त्रों में सामान्य रूप से 32 प्रकार के अपराध बताए गए हैं। इनकी संख्या और अधिक भी हो सकती हैं कयोकि देश, काल और समाज की भिन्नता के अनुसार इन अपराधों के स्वरूप में भी भिन्नता मिलती हैं । इसलिए भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार व्यक्त करते दिखाई पड़ते हैं। हिंदू धर्मशास्त्र अथवा स्मृतिग्रंथ अपराधों और उनके दंड के संबंध में भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार व्यक्त करते दिखाई पड़ते हैं। हिंदू धर्मशास्त्र के अंतर्गत अपराध के स्वरूप पर विचार करने के लिए मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर, नारद, बृहस्पति, कात्यायन आदि को प्रमाण माना जाता हैं।
मन:शारीरिक दृष्टि से अपराध पर विचार करते हुए लांब्रोजो ने काफी पहले कहा था कि अपराधी व्यक्ति के शरीर की विशेष बनावट होती हैं। परंतु उस समय उनके मत को मान्यता नहीं मिली। हाल में अपराधियों को लेकर कुछ प्रयोग किए गए जिनसे निष्कर्ष निकला कि 60 प्रतिशत अपराधियों के शरीर की बनावट असामान्य होती है। रक्तकोशिका में रहनेवाले 23 गुणसूत्र (क्रोमोसाम) युग्मों में से अपराधियों का 21वाँ गुणसूत्र युग्म असामान्य पाया गया। सन् 1968 ई. में अपने चार बच्चों के हत्यारे एक व्यक्ति की ओर सेलेदन की एक अदालत में तर्क उपस्थित किया गया कि मेरे गुणसूत्रों की बनावट अतिपुरुष की है अर्थात् मेरी रक्तकोशिकाओं में गुणसूत्रों का क्रम 'एक्स वाई' हैं (सामान्य पुरुष की रक्तकोशिकाओं मे गुणसूत्रों का क्रम 'एक्स वाई' रहता है) जिसके कारण मेरी अपराध मनोवृति का कारण प्राकृतिक है ओर मैंने असामान्य मानसिक दशा में जिम्मेदारी समाप्त करने के लिए अपने बच्चों की हत्या की है। न्यायालय ने फैसले में यद्यपि उसकी असामान्य मानसिक शारीरिक बनावट का उल्लेख नहीं किया गया तो भी असामान्य दशा के आधार पर अपराधी को छोड़ दिया गया। सन् 1969 ई. में डा. हरगोविंद खुराना ने आनुवंशिक संकेत (जेनेटिक कोड) सिद्धांत का प्रतिपादन करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया जिसके अनुसार व्यक्ति का आचरण उसके जीन समूह की बनावट पर निर्भर करता है और जीन समूह की बनावट वंशपरंपरा के आधार पर होती है। फलत: अपराधी मनोवृत्ति रिक्थ में भी प्राप्त हो सकती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ