अपस्मार

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लेख सूचना
अपस्मार
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 140
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

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अपस्मार को साधारण लोग मृगी या मिरगी कहते हैं और अंग्रेजी मे इसे एपिलेप्सी कहते हैं। अपस्मार की कई परिभाषाएँ दी गई हैं। एक परिभाषा के अनुसार कभी-कभी बेहोशी का दौरा आने की स्थायी प्रवृति को अपस्मार कहते हैं एक दूसरी परिभाषा के अनुसार यह मस्तिष्क के लय का अभाव अर्थात्‌ असंतुलन (डिसरिथमिया) है। एक प्रकार से यह रोग मस्तिष्क की कोशिकाओं की वैद्युत्‌ क्रियाशीलता में क्षणभंगुर आँधी है। मस्तिष्क में किसी प्रकार के क्षत से, अथवा उसके किसी प्रकार विषाक्त हो जाने से यह रोेग होता है।

यदि मस्तिष्क के किसी एक स्थान में क्षत होता है, उदाहरणत: अर्बुद (ट्यूमर) अथवा ब्रणचिह्न (स्कार) तो मस्तिष्क के इस भाग से संबद्ध अंग से ही गति (मरोड़ और क्षेप) का आरंभ होता है, या केवल उसी अंग में गति होती है और रोगी चेतना नहीं खोता। ऐसे अपस्मार को जैकसनीय अपस्मार कहते हैं। इस प्रकार के कुछ रोगी शल्यकर्म से अच्छे हो जाते हैं।

अपस्मार व्यापक शब्द है और साधारणत: रोग की उन जातियों के लिए प्रयुक्त होता है : जिनके किसी विशेष कारण का पता नहीं चलता। दौरे हल्के हो सकते हैं; तब रोग को लघु अपस्मार (पेटि माल) कहते हैं। इस रोग में अचेतनता क्षणिक होती है परंतु बार-बार हो सकती है। दौरे गहरे भी हो सकते हैं। तब रोग को महा अपस्मार (ग्रैंड माल) कहते हैं। इसमें सारे शरीर मे आक्षेप (छटपटाहट और मरोड़) उत्पन्न होता है : बहुधा दाँतों से जीभ कट जाती है और उसके बाद नींद आ जाती है या चेतना मंद हो जाती है। कुछ रोगियों में स्मरण शक्ति और बुद्धि का धीरे-धीरे नाश हो जाता है।

अपस्मार लगभग 0.5 प्रतिशत व्यक्तियों में पाया जाता है । अपस्मार के दो प्रधान कारण हैं :
(1) जननिक, अर्थात्‌ पुश्तैनी :
(2) अवाप्त अर्थात्‌ अन्य कारणों से प्राप्त।

आजकल मस्तिष्क की सूक्ष्म तरंगों को वैद्युत्‌ रीतियों से अंकित करके उनकी परीक्षा की जा सकजी है जिससे निदान में बड़ी सहायता मिलती है। उपचार के लिए औषिधयों के अतिरिक्त शल्यकर्म भी बहुत महत्वपूर्ण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं.ग्रं.-जे.एच. जैकसन : सेलेक्टेड राअटिंग्ज खंड 1 (ऑन एपिलेप्सी ऐंड एपिलेप्टीफार्म कनवल्शंस), लंदन (1931) : पेन-फील्ड तथा जसपर : एपिलेप्सी ऐंड दि फंकशनल ऐनाटोमी आँव दि ह्यूमन ब्रेन, लंदन (1954): डी. विलियम्स: न्यू ओरिएंटेशंस इन ऐपिलेप्सी, ब्रिटिश मेडिकल जरनल, खंड 1, पृष्ठ 685।