अबाध इच्छा
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अबाध इच्छा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 163,64 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राम मूर्ती लुंबा । |
अबाध इच्छा दर्शन, नीति, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान का एक जटिल विवादग्रस्त विषय। प्रत्येक क्षेत्र में प्रश्न यही होता है कि मनुष्य जाए चाहे करने या न करने को स्वाधीन है कि नहीं। प्राय: इसे इच्छा स्वातंत्रय की समस्या कहा जाता है। परंतु मनुष्य जिस इच्छा को चाहे उसी को मन में नहीं उत्पन्न कर सकता। वह उठी हुई इच्छाओं में से जिसको चाहे कार्यान्वित करने को स्वतंत्र है कि नहीं, यही प्रश्न है। इसलिए इसे संकल्पस्वातंत्रय की समस्या कहना अधिक यथार्थ होगा। पश्चिम से प्राचीन दर्शन में मानसिक--शक्ति--तत्वों की जारणा के प्रचार के कारण वहाँ के स्पिनोज़ा जैसे बुद्धिवादी और लॉक जैसे अनुभववादी दोनों प्रकार के विचारको ने संकल्प के कोई वास्तविक मानसिक--शक्ति--सत्ता न होने के पक्ष में बहुत तर्क किए हैं। यह ठीक ही है कि कोई संकल्प-शक्ति-तत्व नहीं। व्यक्ति अथवा व्यक्त्वि ही संकल्प किया करता है, और उसके ही स्वातंत्रय का प्रश्न है। परंतु इसे व्यक्तिस्वातंत्रय अथवा मनुष्यस्वातंत्रय का प्रश्न कहने से व्यक्ति एवं राज्य अथवा समाज के परस्पर अधिकारों के इससे भिन्न प्रश्नों को इस प्रश्न से अलग रखना कठिन हो जाने की आशंका है।
इस प्रश्न का प्रथम निश्चित उत्तर प्राचीन भारत में प्रतिपादित कर्मवाद के सिद्धांत में मिलता है। कर्मविपाक की दृष्टि से मनुष्य कर्म के अभेद्य बंधनों से जकड़ा हुआ है और उसे किसी प्रकार का प्रवृत्तिस्वातंत्रय भी प्राप्त नहीं है। संदर्भ में, धम द्वारा इन बंधनों से मोक्षप्राप्ति के आश्वासन को और संकल्प के स्वातंत्रय अनुभवको सार्थक करने के लिए, वेदांत एवं सांख्य ने संचित कर्म के अंतर्गत प्रारबध तथा अनारब्ध कम्र में भेद किया है। प्रारब्ध वे संचित कर्म हैं जिनके फल का भोगना आरंभ हो गया है; उनको तो भोगना अभी आरंभ नहीं हुआ है। इनका ज्ञान से पूर्णतया नाश किया जाए सकता है। मीमांसा दर्शन ने नित्य और नैमितिक कर्मो को शास्त्रोक्त विधि से करते रहने तथा काम्य एवं निषिद्ध कर्मो को त्याग देने से कर्मबंधन से मुक्ति अर्थात् नैष्कमर्यप्राप्ति को संभव बताया है। गीता, महाभारत और उपनिषदों में किसी प्रकार के कर्म को सर्वथा छोड़ देना असंभव माना गया है। इसलिए ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान द्वारा मोक्ष का उपदेश दिया गया है और इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए पातंजलयोग, अध्यात्म-विचार, भक्ति और कर्मफलासक्तित्याग अर्थात् निष्काम कर्मयोग आदि मार्ग बताए गए हैं। परंतु यदि प्राणिमात्र अपनी कर्मनिर्धारित प्रकृति के अनुसार ही चलें तो मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र कैसे होगा? भारतीय अध्यात्मशास्त्र का उत्तर यह है कि मनुष्य में देह भी है और आत्मा भी। आत्मा मूल में ब्रह्म से अभिन्न है। नामरूपात्मक कर्म अनित्य और परब्रह्म की ही लीला होने से उसी को पूर्णतया आच्छादित कर बाध्य करने में असमर्थ है। फिर,जाए आत्मा कर्मव्यापारों का एकीकरण करके सृष्टि ज्ञान उत्पन्न करता है उसे स्वयं उस सृष्टि से भिझ एवं स्वतंत्र होना ही चाहिए। यह स्वातंत्रय व्यवहार में तब प्रगट होता है जब परमात्मा का ही अंशभूत जीव पूर्वकर्मार्जित प्रकृति के बंधनों में बँध जाता है और इस बद्धावस्था से उसको मुक्त करने के लिए मोक्षानुकूल कर्म करने की प्रवृत्ति इंद्रियों में होने लगती है। परंतु यह स्वातंत्रय वास्तव में आत्मा के इच्छारहित अकर्तापद को प्राप्त करने की प्रेरणा का है, साधारण इच्छा, बुद्धि, मन अथवा व्यक्तित्व का नहीं। वही स्वतंत्र रीति से व्यक्तित्व, मन, बुद्धि अथवा इच्छा को प्रेरणा दिया करता है। जीव--ब्रह्म--अद्वैत को न माननेवाले, भक्तिहेतु द्वैत में विश्वास करनेवाले विचारकों ने भी जीव के स्वातंत्रय को उसका अपना व्यक्तिगत नहीं वरन, स्वप्रयास करनेवालों को परमेश्वर की देवी कृपा से प्राप्य माना है। बौद्धों को प्राय: आत्मा अथवा ईश्वर में विश्वास नहीं होता, परंतु उन्होने भी स्वप्रयास, स्वातंत्रय, सामर्थ्य एवं उत्तरदायित्व का उपदेश दिया है।
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में कभी प्रकृतिबंधन से मुक्ति को स्वातंत्रय माना गया है और कभी प्रत्येक प्राकृतिक इच्छा की पूर्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न उठाया गया है। अफ़लातून ने सकंल्प को ज्ञान निर्धारित स्वीकार किया, परंतु अपने ज्ञान की सीमाओं के अंदर मनुष्य को स्वतत्र एवं उत्तरदायी माना। अरस्तु ने भी कहा कि मनुष्य अंशत: स्वतंत्र है। वह अपने अनैच्छिक कर्मो के लिए अवश्य उत्तरदायी है, और राज्य का इन्हीं से प्रयोजन है। स्तोइक विचारकों का सभी कुछ का नियंत्रण करनेवाली एक विश्वात्मा में विश्वास था, और इस प्रकार के नियतिवादी थे। परंतु इनमें क्रिसिपस मनुष्य के अपने चरित्र को ही उसके आचरण का मुख्य कारण मानता था, और इसलिए मनुष्य को अपने कर्मो के लिए उत्तरदायी कहता था। एपिक्यूरियन दार्शनिक भौतिकवादी थे, फिर भी किसी विश्वनियंत्रण में विश्वास न करने के कारण संयोग एवं स्वातंत्रय के समर्थक थे। ईसाई दार्शनिकों में संत आगस्तिन का विचार था कि आदिमानव आदि में स्वतंत्र था, परंतु उसके पतन से मनुष्य जाती के लिए दुष्कर्म अवश्यंभावी हो गया, केवल कुछ व्यक्ति भगवत्कृपा से भाग्य में अच्छाई लेकर आते हैं। पर थोमस अक्विनस और डन्स स्कौट्स ने ईश्वर की सर्वज्ञता को स्वीकार करते हुए भी मनुष्य के संकल्प में आत्मनिर्धारण की पूर्ण शक्ति मानी है। हॉब्स भौतिकवादी तथा पूर्ण नियतिवादी था। उसने मानसिक अवस्थाओं को मस्तिष्क के अणुओं की सूक्ष्म गतियाँ कहा और मनुष्य के कर्म को इन्ही से और बाह्म भौतिक कारणों द्वारा निर्धारित बताया। देकार्त बुद्धिवादी था। उसने संकल्प में आत्मर्धारण का पूर्ण स्वातंत्रय और ज्ञान एवं विश्वास का भी संकल्प द्वारा ही निर्धारण माना। स्पिनोज़ा ने बौद्धिक नियतिवाद का प्रतिपादन किया। उसने कहा कि मनुष्य का कर्म अधिकांश उसके स्वाभाव एवं चरित्र द्वारा निजाएर्रित होता है। इस आंतरिक बाध्यता का अर्थ है कि वह स्वयंनिर्र्धारित अर्थात् स्वतत्रं है। अनुभववादी लॉक ने संकल्प को अनुभवगत तत्व स्वीकार नहीं किया, परंतु मनुष्य को स्वतंत्र माना। कांट संकल्प स्वातंत्रय का मुख्य पाश्चात्य प्रतिपादक समझा जाता है। उसने स्वातंत्रयक को नीति का आवश्यक आधार कहा है। उसकी दृष्टि में मनुष्य अंशत: आभासरूप प्रकृति का अंग है, और इस नाते प्राकृतिक नियमों की नियति के अधीन है। परंतु अंशत: सत्य मूलजगत् का अंग भी है, और इसलिए वह अपनी अंतरात्मा से निकले हुए निरपेक्ष आदेशों के पालन में सर्वथा स्वतंत्र है। चेतनावादी ग्रीन ने भी प्रकृति के ज्ञान के लिए उससे ऊपर एक नियममुक्त सवतंत्रज्ञाता का होना आवश्यक माना है। फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसाँ के मत के अनुसार आत्मा का बाह्म, व्यावहारिक, देशात्मक तथा सामजिक रूप प्रकृतिबद्ध लगता है, परंतु इसका वास्तविक आंतरिक स्वरूप गहन अंतर्दशन से अनुभूति में आ सकता है। आत्मा के इस वास्तविक स्वरूप का लक्षण जीवन, परिवर्तन, अमाप्यता, अंत: प्रवेश, अदेशिकता, सृजनात्मक सक्रियता एवं स्वातंत्रय है। जर्मन दार्शनिक औयकन ने यही अनुभूति महान् आदर्शो के पालन द्वारा भी प्राप्य मानी है।
नीतिशास्त्र और समाजशास्त्र की कई विचारधाराओं ने भी मनुष्यस्वातंत्रय मे विश्वास की माँग की है, क्योंकि यदि मनुष्य स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने अपराधों के लिए उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता है। फिर अपराध करनेवालों को अपराधी केसे ठहराया जाए और दंड कैसे दिया जाए? स्वातंत्रय में विश्वास के बिना कर्तव्याकर्तव्य, धर्माधर्म, शुद्धि, सुजाएर, क्रांति, प्रयास, अभ्यास, साधना सबका विवेचन अर्थहीन हो जाता है। यदि सभी कुछ कर्म अथवा नियमबद्ध है तो जो होना है, वहीं होगा; क्या होना चाहिए इसका प्रश्न ही नहीं रह जाता और मनुष्य के भाग्य में प्रकृति का दासत्व ही रह जाता है।
आधुनिक विज्ञान पर आधारित आधिभौतिकवाद और प्रकृतिवाद सिद्धांत को दृष्टि से नियतिवादी हैं। इस नियतिवाद के अनुसार मनुष्य, उसकी इच्छाएँ और संकल्प सभी प्रकृति के नियमों द्वारा पूर्वनिश्चित होते हैं। परंतु व्यवहारमें प्रकृतिवादी भी प्रबल पुरूषार्थवादी अर्थात् स्वातंत्रयवादी हुआ करते हैं। सिद्धांत की दृष्टि से भी देखा जाए तो प्रकृतिवाद का मूल अनुभववाद है, और मानव अनुभव मनुष्य के संकल्प के स्वतंत्रय का साक्षी है। मनुष्य बाह्य परिस्थितियों का नियंत्रण कर पाए चाहे न कर पाए, परंतु अत:करण इस मनोवैज्ञानिक अनुभवसत्य का साक्षी है कि वह अपने संकल्पों और कार्यो में, पाप पुण्य, धर्म अधर्म में, पूर्णतया स्वतंत्र है। यही नहीं, अनुभव तो सभी जीवों में और कदाचित् जड़ प्रकृति में भी कुछ स्वचालन एवं स्वातंत्रय का प्रमाण पाता है और आज प्राकृतिक विज्ञान ने इन प्रमाणों को मान्यता प्रदान की है। विचार करने पर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि विज्ञान, नियमवाद, और प्रकृतिवाद स्वयं मनुष्य के स्वतंत्र बौद्धिक प्रयास की उपज है। पूर्णतया नियमबद्ध प्रकृति में तो मनुष्य अपने अनुभवों के आधार पर अपने निष्कर्ष निकालने में स्वतंत्र नहीं होगा। फिर विज्ञान सत्य का दावा कैसे कर सकेगा? वह भी व्यक्तियों का परिस्थितियों द्वारा निर्धारित मत भर रह जाएगा।
फिर भी पूर्ण स्वातंत्रयवाद ठीक नहीं हो सकता। उसका तो अर्थ यह होगा कि व्यक्ति का पूर्व इतिहास कुछ भी हो, वर्तमान स्वभाव एवं चरित्र कैसा भी हो, वह हर समय संभव मार्गो में से किसी को भी अपना लेने में सर्वथा स्वतंत्र है। इस मत के अनुसार तो जीवन में कोई तारतम्य नहीं रह जाता। संचित अनुभव और प्राप्त शिक्षाएँ महत्वहीन हो जाती हैं। वंशानुक्रम भी प्रभावहीन हो जाता है। जीवन जादू का पिटारा सा बन जाता है जिसमें कोई जो चाहे, निकाल दिखाए; नियमों की कोई सत्ता नहीं रहती; विज्ञान असंभव हो जाता है।
इसलिए आधुनिक विद्धान मुख्य प्राचीन विचारधाराओं का पदानुसरण करते हुए मनुष्य को अंशत: स्वतंत्र और अंशत: बाध्य मानते हैं। यहाँ तक मनुष्य अपने सामने कई मार्ग देख पाता है, वहाँ तक उनमें से कोई एक चुन लेने में वह पूर्णत: स्वतंत्र है। यह बात दूसरी है कि किसी एक परिस्थिति में कोई व्यक्ति अपने लिए अधिक संभावनाएँ देख पाता है और कोई कम। यह व्यक्तिगत अंतर अवश्य ही उनके बाह्य और आंतरिक पूर्व और वर्तमान से नियत होते हैं। यही नहीं, इस पूर्ण संकल्पस्वतंत्रता के उपयोग में व्यक्ति अपने वश के बाहर की सभी परिस्थितियों से कुछ न कुछ अवश्य प्रभावित होता है। वास्तव में कोई व्यक्ति उसी कार्य के लिए उत्तरदायी हो सकता है जो उसका अपना हो, अर्थात् जो उसके चरित्र, स्वभाव अथवा व्यक्त्वि से निस्सरित हुआ हो। उत्तरदायित्व के लिए जिस स्वातंत्रय की आवश्यकता है वह यही आत्मनिर्धारण है। इस दृष्टि से मनुष्य वास्तव में अपने कर्मों का स्वतंत्र कर्ता ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं.ग्रं.--ऋग्वेद; उपनिषद् ग्रंथ; श्रीमद्ववद्गीता; योगवासिष्ठ; पातंजल योगसूत्र; सांख्यकारिका; जैमिनी मीमांसासूत्र; वेदांतसूत्र; शांकर भाष्य; महाभारत; धम्मपद; महापरिनिब्बान सुत्तंत; प्लैटो: रिपब्लिक; अरस्तू : एथिक्स; ज़ेलर : स्टोइकस्, एपीक्योरियंस ऐंड सोप्टिक्स; सैकयोन; सेलेक्शंस फ्राम मेडीवल फिलॉसफर्स, उसेकार्त्तस : मेडिटेशंस; लॉक : क्रिटिक ऑव प्रैक्टिकल रीज़न; ग्रीन : प्रोलेग्मेना टु एथिक्स; बर्गसाँ : टाइम ऐंड फ्री विल; यूकेन : प्रज़ेंट डे एथिक्स इन देयर रिलेशंस टु दि स्पिरिचुअल लाइफ; बन : दि इमोशंस ऐंड दि विल; टर्नर : विश ऐंड विल; क्रोचे : फिलासफी ऑव दी प्रैक्टिकल; सोली : फ्रीविल ऐंड डिटरमिनिज्म; पिलर : दि बेसिस ऑव फ्रीडम; पेरन : दि गुडविल; लॉस्की : फ्रीडम ऑव दि विल; बर्दमेव : फ्रीडम ऐंडम दि स्पिरिट।