अयस्कनिक्षेप
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अयस्कनिक्षेप
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 212 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. विद्या सागर दुबे |
अयस्कनिक्षेप भूमि से खोदकर निकाले गए अजैव पदार्थ को खनिज (मिनरल) कहते हैं, विशेषकर जब उसकी विशेष रासायनिक संरचना हो और नियमित गुण हों। यदि किसी खनिज में कोई धातु निकल सकती है तो उसे अयस्क (अंग्रेजी में ओर) कहते हैं। रासायनिक दृष्टि से तो प्राय: सभी पदार्थों में कोई धातु पर्याप्त मात्रा में अथवा नाममात्र रहती है ही, जैसे नमक में सोडियम धातु है, या समुद्र के जल में सोना; परंतु अयस्क कहलाने के लिए साधारणत: यह आवश्यक है कि (1) उस पदार्थ में कोई धातु अवश्य हो, (2) पदार्थ प्राकृतिक वस्तु हो और (3) उससे धातु निकालने में इतना व्यय न पड़े कि वह धातु आर्थिक दृष्टि से महँगी पड़े। अयस्क के ढेर को अयस्कनिक्षेप कहते हैं।
20वीं शताब्दी के पहले अयस्कों को उनकी प्रमुख धातु के अनुसार नाम दिया जाता था, जैसे लोहे का अयस्क, सोने का अयस्क, इत्यादि। परंतु बहुत से अयस्कों में एक से अधिक धातुएँ रहती हैं। फिर, यदि किसी अयस्क में कोई बहुमूल्य धातु निकाली जाए तो इस निकालने की क्रिया में थोड़ा काम बढ़ाने से बहुधा अन्य कोई धातु भी पृथक् की जा सकती है और इस अतिरिक्त कार्य में नाम मात्र ही लागत लग सकती है। इस प्रकार यद्यपि अयस्क का नाम मूल्यवान् धातु के नाम पर रखा जाता था, तो भी वह दूसरी सस्ती धातु के लिए बहुमूल्य स्रोत हो जाता था।
इन सब झंझटों से बचने के लिए धीरे-धीरे अयस्कों की उत्पत्ति के अनुसार उनका नाम पड़ने लगा। उनकी रासायनिक उत्पत्ति कई प्रकार से हो सकती है (द्र. खनिज निर्माण), परंतु उत्पत्ति की भौतिक दशाएँ भी बड़ी विभिन्न होती है। उदाहरणार्थ, धातुवाले कई अयस्क पृथ्वी की अधिक गहराई से निकले, पहाड़ों की दरारों में से ऊपर उठे, पिघले पदार्थ हैं; अथवा प्राचीन काल के पिघले पत्थरों में से पिघला अयस्क उसी प्रकार अलग हो गया जैसे तेल पानी से अलग होता है, और तब दोनों जम गए। प्लैटिनम, क्रोमियम और निकेल के सल्फाइड तथा आक्साइड अधिकतर इसी प्रकार बने जान पड़ते हैं। कुछ अयस्क तह पर तह जमे हुए रूप में मिलते हैं, जैसे पूर्वी ब्रिटेन तथा भारत के लोहे के अयस्क। अवश्य ही ये गरमी, सर्दी से धरातल की चट्टानों के चूर होने पर बने होंगे, यह चूर वर्षा से बहकर समुद्र में पहुँचा होगा और वहाँ तह पर तह जम गया होगा, या घोलों के सूखने पर परत पर परत निक्षिप्त हुआ होगा। ट्रावंकोर के टाइटेनियमवाले अयस्क और अफ्रीका के स्वर्णनिक्षेप इन धातुओं या पदार्थें के ज्यों के त्यों बहकर पहुँचने से उत्पन्न हुए हैं। पिघलने से बने अयस्कों की उत्पत्ति में ताप (तापक्रम) का विशेष प्रभाव पड़ता है। सभी बातों पर विचार कर अयस्कों का वर्गीकरण किया जा रहा है, परंतु अभी वैज्ञानिक इस विषय में एकमत नहीं हो सके हैं।
अयस्कनिक्षेपों की खोज-अयस्कों की खोज तीन प्रकार से की जाती है: भूवैज्ञानिक, भूभौतिक तथा भूरासायनिक। भूवैज्ञानिक रीति से देश के भूविज्ञान (जिओलोजी) पर ध्यान रखा जाता है और उससे यह परिणाम निकाला जाता है कि किस प्रकार के शैलों में कैसे अयस्क हो सकते हैं। भूभौतिकी (जिओफ़िजिक्स) में नित्य नई रीतियाँ निकल रही हैं जो अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध हो रही हैं। दिक्सूचक और चुंबकीय नतिसूचक का तो सैंकड़ों वर्षों से उपयोग होता रहा है; अब ऐसा चुंबकत्वमापी बना है जो हवाई जहाज पर से काम कर सकता है। इनसे लोहे तथा कुछ अन्य धातुओं के अयस्कों का पता चलता है। जब अयस्क और आक्सीजन का संयोजन होता है तो बिजली उत्पन्न होती है जिसे नापकर अयस्क के महत्व का पता लगाया जाता है। विद्युच्चालकता नापने से भी अयस्क का पता चलता है, क्योंकि अयस्कों की चालकता अधिक होती है। स्थानीय गुरुत्वाकर्षण के न्यूनाधिक होने से भी अयस्क का पता चलता है, क्योंकि अयस्क बहुधा भारी होते हैं। गाइगर गणक (गाइगर काउंटर) से यूरेनियम का पता चलता है और अँधेरे में चमकने के गुण से टंग्स्टन आदि का। भूकंपमापी यंत्रों द्वारा भी अयस्कों की खोज में सहायता मिलती है। शैल, मिट्टी, उस मिट्टी में उगनेवाले पौधों और उस प्रदेश में बहनेवाले स्रोतों के पानी के रासायनिक विश्लेषण से भी अयस्कों का पता लगाया जाता है।
पूर्वोक्त रीतियों से जब अयस्क का पता मोटे हिसाब से चल जाता है तब इस्पात, टंग्स्टन कारबाइड या हीरे के बरमे से बहुत गहरा छेद करके, या कुआँ खोदकर, या काफी दूरी तक इधर-उधर खोदकर, देखा जाता है कि कैसा अयस्क है, कितना है और लाभ के साथ उससे धातु निकाली जा सकती है, या नहीं।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-एच. ई. मैकिंस्ट्री: माइनिंग जिऑलोजी (न्यूयार्क, 1948); ए. एम. बेटमैन: इकानोमिक मिनरल डिपाजिट्स (न्यूयार्क, 1950)।